शुक्रवार, नवंबर 27

विद्यापति गीत

1

कि कहब हे सखि रातुक बात।

मानक पइल कुबानिक हाथ।।

काच कंचन नहि जानय मूल।

गुंजा रतन करय समतूल।।

जे किछु कभु नहि कला रस जान।

नीर खीर दुहु करय समान।।

तन्हि सएँ कइसन पिरिति रसाल।

बानर-कंठ कि सोतिय माल।।

भनइ विद्यापति एह रस जान।

बानर-मुह कि सोभय पान।।

2

जौवन रतन अछल दिन चारि।

से देखि आदर कमल मुरारि।।

आवे भेल झाल कुसुम रस छूछ।

बारि बिहून सर केओ नहि पूछ।।

हमर ए विनीत कहब सखि राम।

सुपुरुष नेह अनत नहि होय।।

जावे से धन रह अपना हाथ।

ताबे से आदर कर संग-साथ।।

धनिकक आदर सबतह होय।

निरधन बापुर पूछ नहि कोय।।

भनइ विद्यापति राखब सील।

जओ जग जिबिए नब ओनिधि भील।।

सैसव जौवन दुहु मिल गेल। श्रवनक पथ दुहु लोचन लेल।।
वचनक चातुरि नहु-नहु हास। धरनिये चान कयल परकास।।
मुकुर हाथ लय करय सिंगार। सखि पूछय कइसे सुरत-विहार।।
निरजन उरज हेरत कत बेरि। बिहुँसय अपन पयोधर हेरि।।
पहिले बदरि सम पुन नवरंग। दिन-दिन अनंग अगोरल अंग।।
माधव देखल अपरूब बाला। सैसव जौवन दुहु एक भेला।।
विद्यापति कह तुहु अगेआनि। दुहु एक जोग इह के कह सयानि।।