गुरुवार, जनवरी 7

वियाह : स्वरूप, संकल्पना आ सिद्धांत

पाश्चात्य चिंतन ओ विचारक अनुसार विवाह एक सामाजिक व्यवस्था अछि। स्वतंत्र यौनाचार के रोकए वास्ते जे मानव सभ्यताक विकासक संग अस्तित्व मे आयल। परञ्च भारतीय चिंतन व दर्शन के अनुसार विवाह एक धार्मिक कृत्य अछि। जाहि नींव पर वर्णाश्रम धर्म ओ वर्ण व्यवस्थाक महल ठाढ़ अछि ओहि आधार पर समस्त हिन्दू दर्शन टिकल अछि। चारि वर्गक (ब्र्राह्मïण, क्षत्रिय, वैश्य ओ शूद्र) उत्पत्तिक समान चारि आश्रमो (ब्रह्मïचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ ओ संन्यास) के उदï्गम भारतीय मनीषी-ब्रह्मïा सँ मानैत छथि। तैं मिथिला मे आइयो ई कहबी प्रचलित अछि कि विवाह, जन्म ओ मरण विधिक हाथ मे छैक। चारि आश्रम मे सर्वतोभावेन महत्व। गृहस्थ आश्रम के देल गेल अछि। जेना सभटा नदी समुद्र मे जाकऽ आश्रय ग्रहण करैत अछि तहिना सब आश्रयक मनुष्य गृहस्थे आश्रम मे आश्रय प्राप्त करैत छथि। और एहि गृहस्थ आश्रम क मूल मे अछि स्त्री-पुरुषक संयोग विवाह संस्कार द्वारा।
वैदिक साहित्य मे यद्यपि चारि आश्रमक स्पष्टï उल्लेख नहि भेटैत अछि परञ्च वैदिक संहिताक अतिरिक्त ब्राह्मïणक ग्रंथ, आरण्यक उपनिषद आदि मे चारि आश्रमक सत्ताक स्पष्टï संकेत भेटैत अछि। तैतरीय ब्राह्मïण के अनुसार प्रत्येक मनुष्य तीन ऋण लऽक उत्पन्न होइत अछि देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृऋण। पितृ ऋण सँ मुक्ति हेतु आवश्यक छैक कि मनुष्य विवाह कय संतानोत्पत्ति करे एवं ओकर उचित पालन-पोषण करे। ऋग्वेद के अनुसार विवाहक तीन टा मुख्य प्रयोजन अछि—1। वीर एवं सुयोग्य संतानक प्राप्ति तथा संतानक द्वारा अमरत्वक प्राप्ति। 2. धर्मक पालन-किएक तऽ कोनो याज्ञिक अनुष्ठïान पत्नी के बिना पूर्ण नहि हैत। 3. रति या इन्द्रिय सुख। उपनिषद इन्द्रिय सुखक तुलना ब्रह्मïानन्द सँ करैत अछि। आगा चलिक मनुजी विवाहक चारिम प्रयोजन स्वर्गक प्राप्ति (अपनो लेल तथा पितरक लेल) बतवैत छथि। अतएव संतान, धर्मकार्य, रति सुख और स्वर्गक प्राप्ति हेतु प्रत्येक मनुष्य के विवाह संस्कार आवश्यक मानल गेल। यद्यपि वैदिक काल मे आजन्म ब्रह्मïचारिणी कन्याक एकाधटा उदाहरण भेटैत अछि। परन्तु रामायणकाल मे कन्याक विवाह अनिवार्य मानल जाइत छल तथा कन्याक वैवाहिक जीवन के सफल एवं सुखमय बनैवाक हेतु हुनक अभिभावक पूर्ण प्रयत्न करैत छलाह। प्रारंभ मे कन्या के स्वयं वर चयन कर के अधिकार छलैन्ह किएक तऽ स्वयंवरक प्रथाक प्रचलन छल। किन्तु रामायण काल मे कन्याक पतिवरण मे स्वतंत्रता प्राप्ति नहि छल। स्वयंवरक उल्लेख होइतो, एहि मे अभिभावक इच्छाक सहमति आवश्यक छल।
विवाह संस्कारक संपूर्ण विधि संपादन हेतु ऋषि-महर्षि द्वारा विधि ओ विधान निर्धारित कैल गेल जाहि मे वर-वधू क उम्र, कुल, देशकाल सभ पर विस्तृत चर्चा केल गेल अछि। (नारद स्मृति, पराशर स्मृति, मनुस्मृति आदि) मिथिला मे याज्ञवल्क्य स्मृतिक प्रधानता रहल। विवाह संबंध निर्धारित करैत काल ई ध्यान राखैत जाइत छल कि वर ओ वधू सदृश हो अर्थात्ï गुण कर्म ओ स्वभाव मे वर-वधू मे समानता हो। कुलक समानता, शील स्वभावक सदृशता, शरीर एवं रूपक सदृशता, आयुक अनुकूलता, विधाक सदृशता, आर्थिक स्थितिक समानता आदि पर विचार कैल जाइत छल। कुलक बहुत महत्व देल गेल छल। कुल परिवार या वंश गुण दोष संतानो मे अवैत छैक तैं विवाहक संबंध निर्धारण मे एहि बातक विचार संपूर्णता सँ कैल जाइत छल।
विवाह अपने वर्ण वा जाति मे संभव छल। परञ्च सगोत्रिय विवाह निषिद्ध छल। गोत्र कुल व परिवारक प्रतीक छल। एक गोत्र मे उत्पन्न सब व्यक्ति परस्पर भाई-बहिन के संबंध मानैत छल तैं सगोत्रिय विवाह वर्जित छल। एकर अतिक्रमण के प्रमाण भारतक अन्य भाग मे यदा-कदा देखाइ परैत अछि। परन्तु मिथिला मे सगोत्रिय विवाहक प्रमाण अपवादो स्वरूप नहि देखाइ पड़ैत अछि। बहुपत्नी विवाहक प्रमाण अपवादो स्वरूप नहि देखाइ पड़ैत अछि। बहुपत्नी विवाह क प्रचलन नहि छल। यद्यपि ऋषि याज्ञवल्क्य के दू पत्नी (मैत्रेयी व कात्यायनी) छल परञ्च समाज मे इ प्रथा प्रचलित नहि छल। मिथिला त्यागक संस्कृति मे विश्वास करैत छल। पुरुष एक पत्नीव्रत तथा स्त्री पातिव्रत्य धर्म के पालन केनाइ अपन जीवनक सार्थकता मानैत छल। पातिव्रत्य धर्म के अनुपम उदाहरण जगत जननी सीता के वैवाहिक जीवन मे देखल जाइत अछि, जे संसारक इतिहास मे भूतकाल सँ लऽक आद्यावधि समस्त मानवजाति के लेल अनुकरणीय मानल गेल। धर्मशास्त्रक विधानक अनुसार कन्याक रजस्वला होबय सँ पूर्व विवाह कऽ देवक चाही एकर ध्यान रखैत बाल विवाहक प्रचलन छल। पत्नीक मृत्युक उपरांत पुनर्विवाह क व्यवस्था छल। विधवा विवाहक अनुमति छल परन्तु उच्च जाति मे एकर उदाहरण नहिये टा भेटैत अछि। भारतक अन्य भाग मे नियोग आदि क व्यवस्था कतिपय स्थिति मे मान्य छल परञ्च मिथिला मे नियोग द्वारा संतानोत्पत्तिक उदाहरण नहिए टा भेटैत अछि। पति व पत्नी कोनो एक दोसर के त्यागि नहि सकैत छल और एहन कुकर्म के वास्ते कठोर दंड के व्यवस्था छल। वैश्य व शूद्र जाति मे महिला मे पुनर्विवाहक व्यवस्था छल।
मुगल शासनकाल के अबैत देरी मिथिला मे बहुपत्नी विवाहक प्रचलन प्रारंभ भऽ गेल। कुल के मर्यादा क रक्षाक नाम पर कुलीन प्रथाक प्रचलन भेल तथा एक पुरुष के दस-बीस कन्याक संग विवाह के प्रचलन मिथिला मे प्रारंभ भेल। कालांतर मे सामाजिक चेतनाक परिणाम स्वरूप क्रमश: ई प्रथा समाप्त भेल। संपूर्ण हिन्दू समाजक भांति मिथिला मे सेहो इ मान्य छल कि विवाह संबंध जन्म जन्मांतर के लेल होइत छल। तैं विवाह-विच्छेदक उदाहरण (पत्नी द्वारा पति के परित्याग वा पति द्वारा पत्नी के परित्याग) नगण्य अछि। विवाह के अनेक प्रकार के वर्णन जे धर्मशास्त्र मे वर्णित अछि ताहि मे आर्ष, दैव विवाह के प्रचलन मात्र मिथिला मे छल।

1 टिप्पणी:

करण समस्तीपुरी ने कहा…

जय हो लेखक महोदय ! विवाह संस्कारक उद्भव एवं विकास-यात्राक समीचीन आ सम्यक विश्लेषण पढि हमरो मोन नारदजी जेनका उद्वेलित भा रहल अछि !! अब देखू कि विश्वमोहिनी भेंटती कि विष्णु !!!! धन्यवाद !!!!!
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