मन कें बेसी नहि बुझाबी
नहि त जन्मत कुण्ठा
हमर जीवन कि बदलत
वेदक दू-चारि ऋचा
सुरूज कें धाह के कहि दिओए
पक्षी कें नहि झुलसाबै
हमरा सदिखन नीक लगैत अछि
निस्दबध खरहोरि
जतय बसात सेहो नहि सुनाइत अछि
लोकक केहन आदति छैन्हि
गप्प करताह, चाह पीताह आ विदा भ जेताह
एकसरि हमरा छोडि़ कए।
मंगलवार, जनवरी 4
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