शनिवार, फ़रवरी 5

मिथिलाक संगीत परंपरा

’सम’ एवं ’गीत’ दुनूक संयोग सँ संगीत शब्दक निर्माण भेल अछि । ’सम’ (सम्यक)क अर्थ नीक एवं सुंदर होइछ । वाद्य एवं नृत्य दुनूक मेल भेने गीत नीक आ सुंदर बनि जाइछ । गीत, वाद्य एवं नृत्य एहि तीनूक समन्वित स्वरूप केँ संगीत कहल गेल अछि । संगीत सँ आनंदक आविर्भाव होइछ । ज्ञान आ योगक सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी याज्ञवल्क्यक कथन अछि -
वीणा वदन तत्वज्ञ: श्रुति जाति विशारद:।
तालज्ञश्चा प्रयासेन मोक्षमार्ग प्रयच्छति ।
- याज्ञवल्क्य स्मृति

(संगीत रूपी एकमात्र साधन सँ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चारू पुरुषार्थ भेटैत अछि ।)

संगीत जगतक इतिहास अति प्राचीन अछि । हजारो-हजार वर्षक एहि इतिहास मे हमरा लोकनि कें ओकर क्रमिक विकास दृष्टिगोचर होइछ । विदित अछि जे भारत मे सर्वप्रथम साम गायनक प्रचलन छल । वेद परंपरा मे संगीतक उत्पत्ति सामवेद सँ मानल गेल अछि । तें कहल गेल अछि जे ’साम्वेदादिदं गीतं सज्जग्राह पितामह:’।

एहिना एक परंपराक पश्चात दोसर परंपरा आरंभ भेल । दोसर परंपराक रूप मे गाथा गायन, राग गायन एवं थाट गायनक विकास भेल । युग परिवर्तनक संग संगीत जगत मे सेहो परिवर्तन होइत गेल अछि । ई परिवर्तन मात्र गायन मे नहि, अपितु रागक स्वरूप मे सेहो होइत रहल अछि । सर्वप्रथम श्रुति, श्रुति सँ स्वर, स्वर सँ ग्राम, ग्राम सँ मूर्च्छना, मूर्च्छना सँ जाति, जाति सँ राग, राग सँ थाटक उत्पत्ति भेल अछि ।

संगीत शास्त्रक अवतरण मे अनेक परंपराक उत्पत्ति भेल अछि, यथा - वेद परंपरा, आगम एवं पुराणक परंपरा तथा ऋषि प्रोक्त परंपरा । उपर्युक्त तीनू परंपरा मे अनेकानेक महर्षिक प्रादुर्भाव भेल अछि जे अपन दिव्यज्ञान सँ संगीत जगत केँ आलोकित करैत संगीत शास्त्रक रचना कयलनि । एहि धारा मे क्रमश: नन्दिकेश्वर, नारद, स्वाति, तुम्बरू, भरत, दत्तिल, कोहल, विशाखिल, कश्यप, याष्टिक, आंजनेय, हनुमन्मत, शार्दूल, मतंग, सुधाकलश, अभिनवगुप्त, महाराज भोज, नान्य देव, सोमेश्वर, जगदेक मल्ल, शारदातनय, सोमराज, जयदेव, शारंगदेव, पं. दामोदर, पं, अहोवल एवं पं. लोचन झा आदि मुख्य छथि ।

भारतीय संगीत जगत विश्वक अन्य कोनो देशक संगीत सँ प्राचीन अछि । प्राचीन भारत मे गायनक एक्के पद्धति छल । संगहि एक्के प्रकारक संगीत विद्यमान छल । मुसलमान शासकक आक्रमण भारत मे भेलाक बाद एहिठाम आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक समस्त क्षेत्र मे आघात भेल । एहिठामक गायन परंपरा पर प्रहार भेल । तेँ परंपरा छिन्न-विछिन्न भ’ गेल । उपर्युक्त आक्रमण महमूद गजनबी द्वारा दशम शती ई.क अंतिम दशक मे भेल । अलबरूनी ई स्वीकार कयने छथि जे "हिन्दू विद्या ओतय चलि गेल जत’ हुनका लोकनिक पहुँच नहि छ्ल ।"

महमूद गजनबीक कश्मीर पर आक्रमण १०१५ मे भेल । ओहि ठामक पंडित छल वा मूर्ख, गुणी छल वा गँवार सभ पर एकर व्यापक असरि पड़ल । एहि बात सँ पूर्ण भारतक राजा, विद्वान, कलाकार, धर्मनिष्ठ सभ जन मे भयावह स्थिति व्याप्त भ’ गेल । एहने विषम स्थिति मे पम्मार क्षत्रिय (कर्णाट देशीय) नान्यदेव मिथिला पर चढ़ाई क’ शासक बनि गेलाह । हिनक शासनकाल १०८९ मे स्थापित भेल । किछु दिन तँ निर्विघ्न बीतल, मुदा बाद मे बंग देशीय मुर्शिदाबाद जिलाक अंतर्गत कर्ण सुवर्ण राजा आदि शूर (विजसेन)क आज्ञानुसार हुनक पुत्र बल्लालसेन मिथिला पर आक्रमण कयल । नान्यदेव केँ परास्त क’ हुनका बंदी बनौलकनि ।

महाराजा नान्यदेव संगीत शास्त्रक मूर्धन्य विद्वान छ्लाह । हुनक प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सरस्वती हृदयालंकार’ अछि, जकर दोसर नाम ’भरत भाष्य’ अछि । एहि ग्रंथ मे पूर्वर्ती विद्वानक यथा आपिशूल, पाणिनि, विशाखिल, कश्यप, मतंग, देवराज, शतातय तथा रत्नकोशक चर्चा अछि । महाराज नान्यदेव गांधार नगरक चर्चा करैत ओहि सँ उत्पन्न राग समूह केँ लौकिक व्यवहारक लेल उपयुक्त मानलनि ।

१४म शताब्दीक आरंभ सँ एहिठामक कला पुनर्जीवित भेल । कलाकार एवं शास्त्रकार पुन: अपन वृतिक प्रति जागरूक भेलाह । उत्तर भारत एवं दक्षिण भारतक बीच एक व्यवस्था पर सहमति बनल, जाहि सँ उत्तर भारत मे थाट आ दक्षिण भारत मे मेलक उत्थान भेल ।

भारतीय संगीतक परिप्रेक्ष्य मे जखन हम मिथिलाक संगीत परंपरा पर दृष्टिपात करैत छी तँ देखैत छी जे एकर अपन एक पृथक इतिहास अछि जाहि मे एकर प्राचीनता एवं परंपरा समटल अछि । संगीतक क्रमिक विकासक वास्तविक स्वरूप ’मिथिलाक संगीत परंपरा’ मे भेटैत अछि ।

मिथिलाक संगीत परंपरा हेतु वैदिक युग पर दृष्टि देबय पड़त । ओहि युग मे संगीतक संपूर्ण थाती पुरहितक हाथ मे छल । संगीतक प्रचार-प्रसार मे पुरहितक अहम भूमिका रहल । पुरहित आन जातिक नहि मात्र ब्राह्मण होइत छ्लाह । यज्ञादि अवसर पर ब्राह्मण लोकनि सामवेदक ऋचा के सछंद आ सस्वर गबैत छ्लाह । एहि युगक संगीत अधिकांशतया यज्ञक अंगतम रूप मे बनल रहय । यज्ञ पूजादि मे सामगान अनिवार्य छन । शतपथ-ब्राह्मण मे तँ एहन कहल गेल अछि जे बिना सामगानक यज्ञ पूर्णे नहि होइत छल । एहि तरहें सामगान ब्राह्मणक एक विशेष अंग छ्ल । समाजक अन्य वर्ग कें ज्ञानदान करब, वैदिक रीति-रेवाज कें समाज द्वारा ग्रहण करायब तथा पूजा-पाठ, यज्ञ-याप आदि मे सामगान करब हुनक प्रधान कार्य छ्ल । ब्राह्मण परिवार मे सामवेदक ज्ञाता प्राय: सभ होइत छलाह जाहि कारणें हुनक संगीतज्ञ हैब स्वाभाविके छल । प्राचीन परिपाटीक प्रभाव आइयो संपूर्ण मिथिला मे देखल जाइत अछि । जन्म सँ ल’ यज्ञोपवीत आदि प्रत्येक अवसर पर कोनो ने कोनो रूपें सामगान होइतहि अछि । वर्तमानक ई प्रचलित रेवाज वैदिके युगक देन थिक । तें मिथिलाक संगीत परंपराक यात्रा वैदिक युग सँ आरंभ मानल गेल अछि ।

सामगायनक परंपरा चलिते रहल कि एक टा दोसर धारा आरंभ भेल जे लोक वा लौकिक संगीत गायन परंपरा कहौलक । ओहि गान मे नियमक परिपालनक कोनो व्यवस्था नहि छल । जीवनक संपूर्ण गतिविधिक सजीव चित्रण ओहि गायन मे रहैत छल । जखन सामगान समाजक अन्य वर्गक हेतु दुरूह भ’ गेल, तँ वंचित जनमानस ओहि गानक नकल अपन-अपन घर मे आरंभ क’ देलक । एहि गान मे सामगानक नियम-बंधन कें सुविधानुसार तोड़ि-मरोड़ि देल गेल । ई लौकिक गान जातीय गान एवं ऋतु गानक रूप मे प्रकट भेल जाहि मे पारस्परिक रूढ़क जगह लोक जीवन लैत गेल ।

एहि तरहें देखबा मे अबैत अछि जे मिथिला मे कालक्रमे गानक दू स्रोत भ’ गेल । एक स्रोत मे सामगानक जे एक विशेष वर्गक अधीनस्थ रहल, दोसर ओ गान जे सर्वजन सुलभ-सरल भेल जाहि मे गानक स्वतंत्रता छल । स्वतंत्र गान मे लौकिक संगीत चलैत रहल एवं बंधन ओ नियमक आधार पर चलयवला सामगान मे जड़ता अबैत गेल ।

सामगायनक उपरांत गाथा गायनक परिपाटी आरंभ भेल । ऋग्वेदक अनेक मंत्र मे ’गाथा’ शब्दक उल्लेख अछि । ’गाथा’ शब्दक प्रयोग पद्य वा गीतक अर्थ मे प्राप्त होइत छल । गाथा गायन कर’ वला कें ’गाथिन’ कहल गेल अछि । ’ऐतरेय ब्राह्मण’ मे ऋक्‌ एवं गाथा मे अंतर देखाओल गेल अछि । ऋक्‌ दैवी अछि आ गाथा मानवी । ब्राह्मण ग्रंथ सँ ई प्रमाणित होइत अछि जे ऋक्‌ यजु: आ साम सँ पृथक होइत छल, ओकर प्रयोग मंत्रक रूप मे नहि कयल जाइत छल । कोनो राजाक सुकीर्ति कें लक्षित क’ लोकगीतक रूप मे ओकर उपस्थापन कयल जाइत छल । जन-समूह द्वारा ओ गीत गाओल जैत छल आ गाथाक नामे ओ प्रचलित छल । मिथिला मे लौकिक संगीत एहिना जनजीवनक संग चलैत रहल ।

मिथिला मे लोरिक, सलहेस, दीना-भद्री, विहुला, नैका-बनिजारा आदि अनेक गीत अछि जे गाथा गीतक नामे जानल गेल । संभवत: सामगायनक दुरूहताक कारणे लोक ओहि सँ विमुख होइत गेल आ गाथा गायनक प्रति आकर्षित होइत गेल ।

एहि बीच छंद गायनक एकटा नवीन परंपरा आरंभ भ’ गेल । एहि परंपराक परिपोषक विद्वत्‌जन भेलाह । गाथा गायन उन्मुक्त एवं स्वच्छंद रूपें गाओल जाइत छल । कोनो तरहक प्रतिबंध एहि गायन मे नहि रहैत छल । एक व्यक्ति अनुकरण क’ अगिला पीढ़ी कें अनुकरण हेतु प्रेरित करैत छलाह एवं गाथा गायनक मौखिक शिक्षा दैत छलाह । ई परिपाटी सैकड़ो वर्ष धरि चलैत रहल आ औखन चलि रहल अछि । भारतीय भाषा मे सभ सँ प्राचीन छंद सभ वेद मे उपलब्ध अछि । वेदेक छंद सँ मैथिलीक छंद सभ विकसित भेल हो से संभव अछि । वेद मे गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, बृहती, पंक्तिक, त्रिष्टुप एवं जगती जे क्रमश: ८, १०, ११ वा १२ वर्णक चरण सभ सँ बनल । वैदिक कालीन परंपराक बाद जे कवि वा विद्वान भेलाह ओ अपन विवेकानुसार आकस्मिक लयक आ तालक वर्ण-विन्यास करैत रहलाह । कालक्रमे ई रचना सामान्य छंद सँ बेसी चमत्कारी आ कर्णप्रिय होमय लागल । काव्य मे छंदक विशेष स्थान छल । कालांतर मे वैह छंद तालक स्वरूप मे आबि गेल यथा - छओ मात्राक ताल-दादरा, खेमटा । सात मात्राक ताल - तिब्रा, रूपक एवं पश्तो । आठ मात्राक ताल - कहरबा एवं धुमाली, दस मात्राक ताल - झप्ताल एवं सूलताल । बारह मात्राक ताल - एकताल, चौताल । चौदह मात्राक ताल - दिपचंदी (चाँचर), झूमरा, धमार, गजझंपा आ आड़ा चौताल । सोलह मात्राक ताल - त्रिताल, यत एवं तिलवाड़ा अछि ।

साधारणतया मैथिली लोकगीत वर्णावृतक अपेक्षा मात्रिक छंद मे लिखल गेल । मात्रिक छंद मे मात्रा गनल जाइत छल आ तद्‌नुकूल ताल मे गाओल जाइत छल ।

छंद गायनक उपरांत गाथा गायनक परिपाटी आरंभ भेल । प्रबंध रचना संस्कृत मे होमय लागल । प्रसिद्ध भक्तकवि जयदेव रचित ’गीत गोविंद’ एकर उदाहरण अछि । प्रबंध गायन मे संस्कृत पद कें राग मे बान्हि उपस्थापन कयल जाइत छल । मिथिला मे ई गायन पद्धति कैएक सय वर्ष धरि रहल । ओहि गीत मे अनेक चरण होइत छल, जेना- उद्‌ग्राह, मेलापक, ध्रुव, अंतरा एवं आभोग । ई प्राय: सामगानक प्रस्ताव, उद्‌गीत, प्रतिहार, निधान, उपद्रव आदिक प्रतिरूप रहल हो से संभव । प्रबंध गीतक समस्त भेदक विषय मे उल्लेख करब उचित नहि, कारण एकर विशाल विवरण अछि । संक्षेप मे ई कहल जा सकैछ जे मिथिला मे एहि गीत गायनक परंपरा कें शास्त्रीय संगीत गायनक द्वारा जियाक’ रखलनि स्व. माँगन, स्व. रामचन्द्र झा, स्व. बालगोविन्द झा, स्व. रामचतुर मल्लिक आ स्व. दरबारी दास नटुआ ।

प्रबन्ध गीतक तीन भेद मानल गेल अछि - क्रमश: सूड, आलि एवं विप्रकीर्ण । सूडक दू भेद अछि _ शुद्ध सूड एवं सालग सूड ।

शुद्ध सूडक भेद - एहि मे आठ भेद अछि - एला, करण, ढेंकी, वर्तनी, झोवड़, लंब, परास, एकताली ।

सालग सूडक भेद - एहि मे सात भेद मानल गेल अछि जाहि मे ध्रुव, मंठ्‌य, प्रतिमंठ्‍य, निस्सारूक अड्‌ड, रास, एकताली । ध्रुव सँ ध्रुवा, ध्रुवा सँ ध्रुपद आधुनिक रूप अछि ।

मिथिलाक संगीत परंपरा मे राजा नान्यदेवक बाद राजा हरिसिंहदेवक नाम अबैछ । ओ संगीतक पूर्ण ज्ञाता आ परिपोषक छलाह । हुनका विषय मे कहल गेल अछि -
हरोवा हरिसिंहो वा गीत विद्या विशारदौ
हरि(हर) सिंहे गते स्वर्गगीत विद्‌ केवलं हर:

राजा हरिसिंह देव (१२९५ ई.) संगीत शास्त्रक महान विद्वान छ्लाह । कवि शेखराचार्य ज्योतिरीश्वर ठाकुर जे वर्णरत्नाकर ग्रंथक रचना कयलनि, हुनके दरबारक एक पंडित छलाह । ग्रंथ सात कल्लोल मे लिखल गेल अछि । हिनक अन्य दू ग्रंथ क्रमश: धूर्त समागम एवं पश्चायक अछि जे नाट्‌य प्रहसन अछि । मैथिली साहित्यक प्रथम गद्य ग्रंथ वर्णरत्नाकरक षष्ट कल्लोल मे गायन, वादन एवं नृत्यक पूर्ण विवरण अछि । सर्वप्रथम राग विन्यास एवं विभिन्न लोक गीतक चर्चा सेहो एहि ग्रंथ मे भेल अछि । संगीत जगतक हेतु मिथिलांचलक ई ग्रंथ अनुपम भेंट अछि ।

हरिसिंह देवक बाद राजा शिवसिंहक १४०२ ई. मे जन्म भेल । हिनके बालसखा महाकवि विद्यापति ठाकुर छलाह । महाकवि स्वयं राजा एवं राज्यक सर्वश्रेष्ठ एवं शुभचिंतक छलाह । महाकवि विद्यापति एक महान संगीत साधक एवं गायक छलाह । जयदेवक परिपाटीक अनुरूप रचना क’ ओहि पर राग करब हिनक एक महान कार्य कहल गेल अछि । जयदेवक रचना तँ संस्कृत मे अछि, मुदा महाकवि विद्यापति मैथिली गीताक रचना क’ ओहि पर रागोल्लेख क’ एक टा नव परंपराक जन्म देलनि, जे कवि हर्षनाथ झाक समय धरि रहल । महाकवि विद्यापति रचित गीत राजप्रासाद मे सुधीजनक बीच राग-रागिनी मे कत्थक कलाकार एवं मैथिली गायक द्वारा प्रदर्शित कयल जाइत छल । राजा शिवसिंहक शासन काल मे भारतक पश्चिमी क्षेत्र सँ कत्थक नर्तक लोकनि मिथिला आबि अपन कला प्रतिभा सँ राजा कें प्रसन्न क’ राजाश्रित भेलाह । कत्थक परंपरा मे सर्वप्रथम सुमतिक नाम अबैछ । सुमतिक बाद उदय, जयत आदिक नाम अबैछ जे महाकविक रचनाक आधार पर रंगमंच पर नृत्य प्रदर्शित क’ राजा एवं संपूर्ण सभासद कें मंत्रमुग्ध करैत छ्लाह । जयत गौड़ प्रचलित गान कें छंद एवं ताल मे निबद्ध क’ महारज शिवसिंहक समक्ष प्रस्तुत करैत छलाह । कत्थक परंपरा मे क्रमश: कृष्ण मल्लिक, हरिहर मल्लिक, खंग्राम, घनश्याम, कल्लीराम, लक्ष्मीराम, राघवराम तथा टीकारामक नाम अबैछ । गायनक संग-संग नृत्य सेहो होइत छल । कृष्ण एवं राधाक प्रणय लीलाक प्रसंग गीत एवं नृत्य मे रहैत छल । अन्य प्रकारक गायन सेहो होइत छल जे जीवनक विभिन्न अंग सँ जूड़ल छल । एहि मे सोहर, समदाउन, बटगमनी, लगनी, नचारी, महेशवाणी गीत आदि छल । लोक धुनक ई गीत पूर्ण आकर्षक छल । मिथिलाक संगीत परंपराक परिप्रेक्ष्य मे एक उदाहरण अछि जे महाकवि विद्यापति रचित पुस्तक पुरुष परीक्षाक गीतबद्ध कथा मे उल्लिखित अछि । शीर्षक मे मिथिलाक कलाकार ’कलानिधि’ नामक गवैयाक उल्लेख अछि । गायक तिरहुत राज्य सँ गोरखपुर राजधानी मे राजा उदय सिंहक दरबार मे आयोजित संगीत प्रतियोगिता मे भाग ल’ समस्त राज्याश्रित गायक कें परास्त कयलनि ।

महाकवि विद्यापतिक समय धरि राग गायनक परंपरा आरंभ भ’ गेल छल । मध्ययुगक सभ सँ उत्कृष्ट संगीत ग्रंथ पं. लोचन झा रचित राग तरंगिणी अछि । एहि ग्रंथ मे तीन भाषाक समावेश अछि - संस्कृत, ब्रजभाषा एवं मैथिली । कवि लोचन संगीत शास्त्रक एक कुशल ज्ञाता एवं कलाकार छलाह । ई ’हनुमन्मत’ कें आधार मानि रागक विश्लेषण कयने छथि । ओ प्रसंगवश कहैत छथि _
भैरव: कौशिकश्चैव हिन्दोलो दीपकस्था ।
श्री रागो मेघरागश्च षड़ेते हनुमन्मता:॥

ग्रन्थ मे पाँच तरंग अछि । प्रथम तरंग मे पुरुष राग कथन आ द्वितीय मे राग-रागिणी कथन अछि । संपूर्ण ग्रंथ मे संगीतक पूर्ण विवरण अछि । तत्कालीन मिथिलाक प्रचलित देशी राग, देशी ताल तथा लय (सुर) पर ओ पूर्ण प्रकाश देलनि अछि । भारतीय संगीत ग्रंथक सूची मे ई ग्रंथ महानतम अछि ।

ईस्ट इंडिया कंपनीक बाद भारत मे फिरंगी शासन भेल । भारतक कलाकार एक बेर फेर जान-माल एवं जाति-धर्मक सुरक्षा हेतु ओहि स्थान मे जाय लगलाह जे स्थान सुरक्षित छल । बहुत रास कलाकार मिथिला मे अयलाह वा नेपाल मे जा बसलाह । वर्तमान मे मिथिला मे एहन चारि संगीत घराना अछि जे अपन दू सय सँ अढ़ाइ सय वर्षक इतिहास रखने अछि । ओहि मे क्रमश: अमता, मधुबनी, पनिचोभ एवं पंचगछिया घराना अछि ।
सभ घरानाक वर्णन कयल जाय तँ एक पृथक पुस्तक बनि सकैछ ।


अमता घराना -
एहि घरानाक स्थापना महाराज माधव सिंह द्वारा १७७५ ई. मे दरभंगा सँ बीस मीलक दूरी पर बहेड़ी थानान्तर्गत अमता गाम मे भेल । संगीत जगत मे एहि गामक वैह स्थान अछि जे मध्यप्रदेश मे ग्वालियरक । एहि घरानाक आदिपुरुष मे राधाकृष्णन एवं कर्तारामक नाम अबैछ । ध्रुपद गायन (गौड़वाणी) शैलीक ई भारतीय स्तरक कलाकार छलाह । हिनक संतान मे क्रमश: स्व. क्षितिजपाल मल्लिक, स्व. राजितराम शर्मा मल्लिक, स्व. पद्‌मश्री रामचतुर मल्लिक, स्व. नरसिंह मल्लिक, स्व. यदुवीर मल्लिक, स्व. महावीर मल्लिक, स्व. पद्‌मश्री सियाराम तिवारी, पं. विदुर मल्लिक, पं. अभयनारायण मल्लिक, रामकुमार मल्लिक, प्रेमकुमार मल्लिक आदिक नाम अबैछ । ई लोकनि चारू पट यथा ध्रुपद, खयाल, टप्पा, ठुमरी तँ गबितहि छलाह, महाकवि विद्यापति रचित गीत एवं लोकगीत सेहो गबैत छलाह ।


मधुबनी घराना -
ई घराना मधुबनीक राँटी-मंगरौनीक परिवार द्वारा बसाओल गेल । खयाल एवं ध्रुपद दुनू शैली मे गायन उपस्थापन करब हिनका परिवारक मुख्य गुण छल । स्व. मनसा मिश्र, स्व. डीही मिश्र, स्व. खरवान मिश्र, स्व. गुरे मिश्र, स्व. शिवलाल मिश्र, स्व. सित्तू मिश्र, स्व. हीरा मिश्र, स्व. झिंगुर मिश्र, स्व. भगत मिश्र, स्व. परमेश्वरी मिश्र, स्व. कमलेश्वरी मिश्र, स्व. आद्या मिश्र, स्व. रामजी मिश्र, लक्ष्मण मिश्र, ललन मिश्र आदिक नाम अबैछ ।


पनिचोभ घराना -
मिथिलान्तर्गत पनिचोभ घरानाक इतिहास सेहो पुरान अछि । एहि घरानाक प्रसिद्ध कलाकार मे स्व. रामचन्द्र झा, पं. दिनेश्वर झा, राजकुमार झा, मंगनू झा, दुर्गादत्त झा, जटाधर झा, रमाकान्त झा, नचारी चौधरी, ब्रजमोहन चौधरी आदिक नाम उल्लेखनीय अछि ।


पंचगछिया घराना -
राय बहादुर बाबू लक्ष्मी नारायण सिंह एहि घरानाक संरक्षक एवं पोषक छलाह । एहि घरानाक मुख्य गायन शैली ख्याल एवं ठुमरीक संग पखावज वादन छल । एहि घरानाक दू विख्यात कलाकार भेलाह जाहि मे प्रथम मांगन एवं द्वितीय रघू झा छलाह । मांगन सँ शिक्षा ग्रहण कय हुनक शिष्य क्रमश: निम्नलिखित कलाकार छथि - बटुकजी झा, तिरो झा, शिवन झा, बाल गोविन्द झा, युगेश्वर झा, माधव झा, रामजी झा, धर्मदेव सिंह, राधो झा, पुनो पोद्दार, सुन्दर पोद्दार, गणेशकान्त ठाकुर, उपेन्द्र यादव, दुर्गादत्त झा, सत्य नारायण झा, परशुराम झा, बलराम झा आदि ।


उपर्युक्त घर-घराना शिष्य तैयार क’ मिथिलाक संगीत परंपराक प्रचार-प्रसार संप्रति देश-विदेश मे क’ रहल छथि । थाट गायन परंपराक जनक स्व. विष्णुनारायण भातखंडेजी छथि । अध्ययन, चिंतन क’ ओ समस्त राग कें दश थाटक अंतर्गत राखि एक नवीन परंपरा कें जन्म देलनि अछि । मिथिलान्तर्गत शास्त्रीय संगीतक ज्ञान प्राप्त कयनिहार व्यक्ति कें राग एवं थाट पद्धतिक अनुसारे शिक्षा ग्रहण करय पड़ैत छनि ।

वैदिक युग सँ वर्तमान समय धरि संगीतक परंपरा मे उतार-चढ़ाव होइत रहल, तथापि एहिठामक संगीत अपन प्रवाह कें बनौने रखलक । साम गायन, गाथा गायन, छंद गायन, प्रबंध गायन, राग गायन एवं थाट गायनक क्रमबद्ध परंपरा चलैत रहल, परंतु एहिठामक शास्त्रीय गायन वा लोकगायनक सेहो अपन परंपरा सँ चलैत रहल । मिथिलाक संगीतक क्रमबद्ध विकास पर ध्यान दी तँ औखन राग परंपरा विद्यमान भेटत । मात्र ओकर स्वरूप मे युगानुरूप परिवर्तन परिलक्षित हैत । जहिना व्यक्ति एवं समाजक रहन-सहन, खान-पान, आचार-विचार, रीति-नीति मे क्रमिक विकास भेल, तहिना प्राचीनता एवं नवीनता दुनू धारा एखनो क्रमश: शास्त्रीय धारा एवं लोक धाराक रूप मे सतत प्रवाहित अछि

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

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