जाहि अंतर्वस्व केँ महिला सभ शारीरिक सुंदरता, सुघड़ता केँ कायम रखबाक लेल उपयोग मे आनैत छथि; ओकरा पश्चिमी सभ्यता केँ पक्षधर बाजारू संस्कृतिक कारणे लाज-धाक के धकियाबैत फैशनक रूप मे परोसि रहल छथि। कि एकरा अपन सभक सभ्यता पर करगर चोट मानल जाय? कि किछु आर!
जाहि अंतर्वस्त्रक नामकेँ सार्वजनिक रूपेँ बजबा मे हमरा सभकेँ असोकरज बुझना जाइत अछि, जकरा घरक महिला कुनु दोसर कपड़ा के तर मे दऽ रौद मे सुखाबैत छथि, ओहि वस्त्रक ऐना प्रचार अखरैत अछि। अप्पन समाज मे एखनधरि 'ब्राÓ शब्दक सार्वजनिक रूपें प्रयोग केनाय अभद्रताक पर्याय मानल जाइत अछि। ओतहि एकरा उत्तरीय भारतीय परिधानक रूप मे मान्यता देव कचोटैत अछि कि फैशनक अर्थ कपड़ाक संख्या आ अकार मे कमी आनब रहि गेल अछि? डिजाइनर आ व्यवसायी द्वारा अपन हितक वास्ते हमर सभक सभ्यता केँ निरन्तर नांङ्गïट करब कत्तय धरि उचित अछि? अफसोस होइत अछि भारतीय नारीक परिधान पर आखिर कहिया रूकत ई पश्चिमी सभ्यताक अनुकरण। अनुसरण मात्र उघारूपन केँ, आर कथूक नहि? जखन कि हमर अतीत समृद्घ अछि, विकसित अछि। मात्र शारीरिक उघारूपन अपनेलाह सँ कि भेटत?
पश्चिमी देश जकाँ उघारूपनक रोग एखनहुँ एहिठाम सभकेँ नहि लगलैक अछि। एहिठाम नारीकेँ देवी मानल जाइत छैक। सरस्वती आ दुर्गा मानैत छैक। सेक्सक आनन्द ई कदापि नहि लगाओल जाय कि भारतीय संस्कृति उघारूपनक खालिस विरोधी अछि। एक सीमा धरि हमहूँ सभ उघारूपन मे विश्वास करैत छी, सीमा तोड़ी कऽ नहि। बिनु उघारने तऽ संभोग सम्भवे नहि छैक। एहिठामक सभ पत्नीक संग ओ सभ करैत छथि जे योनि संतुष्टिï लेल आवश्यक छैक। नहि तँ सन्तान कोना होयत? सृष्टिï कोना चलत? बिनु बेटाक जे मरैत अछि तकरा तँ हिन्दू धर्मक अनुसार स्वर्गों मे कल्याण नहि होइत छैक।
प्रेम कोना करी, संभोग कोना करी, ताहि संबंध मे शिक्षा लेल हमरा देशक कामशास्त्र विश्वविख्यात अछि। काम लक्षणक विस्तृत विवरण दैत आचार्य वात्सायन लिखैत छथि :-
''श्रोत्तत्वकचक्षुर्जिका ध्राणानामात्म संयुक्तेन मनसा।
धिष्टिïतानां स्वेषु विषयेतानुकूल्यत: प्रवृत्ति: काम:॥ÓÓ
अर्थात्ï - कान, त्वचा, आँखि, जिह्वïा, नाक एहि पाँचो इन्द्रिय केर इच्छानुसार शब्द, स्पर्श, रूप, रस आ गन्ध केर प्रवृत्तिये काम थिक अथवा एहि इन्द्रिय केर प्रवृत्ति सँ जे आत्मानन्द होइछ तकरे 'कामÓ कहल जाइछ।
निष्कर्ष ई जे ज्ञान मे जाहि विषयक संस्कार होइछ से वासना बनि ज्ञान मे विद्यमान रहैत अछि आ जखन उक्त विषय के पयबाक इच्छा उत्पन्न होइत अछि तऽ ओहि इच्छा के काम कहल जाइत अछि। चूँकि ई इच्छा ज्ञानक विषय अर्थात्ï वासना सँ जनमैत अछि तेँ ओहि विषय-वासनाके सेहो काम कहल जाइत अछि। काम केर कारणेँ एक प्राणी दोसर प्राणी सँ आकृष्टï भऽ संभोग करैत अछि तेँ सृष्टिï सृजन होइछ। काम के गाम-घरक बोली मे 'सहवासक इच्छाÓ कहल जाइत अछि।
काम सृष्टिïक अस्तित्व अछि। काम सृष्टिïक आदि तत्त्व अछि। सृष्टिïक विकासक आदि कारण भेला सँ एकर अनादि सेहो कहल जाइत अछि। एकरा उपेक्षित मानब समस्त मानव मात्रक लेल अपराध थिक। काम प्राणिमात्र केर जन्मगत स्वाभाविक प्रवृत्ति थिक। काम केर शमन शारीरिक आ मानसिक दृष्टिïयेँ हानिप्रद अछि। 'कामÓ स्त्री-पुरूष दुहुक लेल समान अछि।
दुनू मे समानरूपेँ भूख, प्यास आ तृप्ति छैक। काम इच्छाक शान्तिपूर्ण समाधान प्राणीमात्रक लेल आवश्यक एवम्ï हितकर अछि। जहिया भूख आ काम खतम भऽ जायत तहिया सृष्टिï स्वत: समाप्त भऽ जायत। तेँ प्राणिमात्रक लेल काम आ भूख दुनू अनिवार्य अछि। इएह कारण अछि जे काम प्राणीमात्रक लेल ईश्वरीय प्रवृत्ति थिक। एकर अनिवार्यता आ महत्ता के किओ नकारि नञि सकैत अछि।
डॉ। फ्रायड केर विचार छन्हि जे—''संसारक पैघ-पैघ योद्घा, राजनेता, दार्शनिक आ वैज्ञानिक भेल छथि सभहक जीवन काम-वासना सँ पूर्ण पाओल गेल अछि। दुनियाक विकास हिजड़ा सँ नहिं अपितु ओहि 'मर्दÓ सँ भेल अछि जे काम उपासक छलाह। धर्म-दर्शन आ समाजक समस्त ललितकला केर पाछाँ मनुष्य मे सेक्सक भावना निहित रहैछ।ÓÓ
जतेक संभोगक आसनक चर्चा हमरा सभक कामशास्त्र मे अछि तकर बराबरी तँ पश्चिमी देश आइयो नहि कऽ सकल। लेकिन हम सभ ई काज पश्चिमी देशक लोक जकाँ सार्वजनिक स्थान मे नहि, शयनकक्ष मे करैत छी, सूतय वला घर मे। केवाड़ बन्न कऽ करैत छी। परदा राखि कऽ करैत छी। आन केओ देखि नहि लिअय तकर-ध्यान रखैत छी।
हमर पूर्वज पश्चिमी देश सभ सँ बेसी उघारूपन मे विश्वास करैत छलाह। प्रमाण तँ खजुराहो मन्दिर अछि जतय भित्तिचित्र आ प्रतिमाक रूप मे हजारों-हजार स्त्री पुरुषक संभोग मे व्यस्त, नग्न नृत्य मे मस्त, आलिंगनबद्घ होइत चुम्बनक्रिया मे संलग्र चित्र देखाओल गेल अछि। एहेन अनेको मन्दिर अछि जतय पश्चिमी सभ्यताक पक्षधर केँ अपन सेक्सक ज्ञानक श्रेष्ठताक घैलि फुटि जेतैन्ह। होश निफ्ता भऽ जेतैन्ह।
2 टिप्पणियां:
रचना मे सगरे भेटल मिथिला केर पहचान।
चालि एहेन जे जे चलत घटत मान सम्मान।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
देह उघाडू संस्कृति का निसंदेह विरोध किया जाना चाहिए यही हमारी भारतीय संस्कृति के हित में होगा....विचारणीय पोस्ट...आभार.
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