शुक्रवार, जनवरी 30

लघुकथा - दूध

दूध घरक पुरूष पीबैत छै, किएक त’ ओ पुरूष छैक। ओकर काज छै - दूध के सुसुम गिलास कँ सावधानी सँ हुनका-धरि पहुँचायब। पहुँचाबैत काल ओ नित्य दूधक गिलास के सूंघैत छल। खौलल दूधक सुगंध ओकर लालसा कें जगाबैत छल। एक दिन माय आ दादी घर पर नहि छल त ओ चट-पट घर खोलि खाली गिलास में दूध भरैत छल आ गिलास के जहने मुँह धरि ल गेल, घरक किवाड़ भड़ाक सँ फूजल। ओकर मुँह धरि पहुँचल गिलास हाथ सँ छूटि गेलै। गिलासक दूध आ बर्तनक दूध हरा गेलै। घर में गोबर सँ निपाल जगह पर दूध पसरि गेलै। माय कें लग आबैत देखि ओ थर-थर काँपि रहल छल। क्षमा माँगैत बाजैत अछि,‘‘ह.....ह.....हम....’’‘‘दूध पीबैत छलै कामिनी?’’‘‘ हा... हाअ...’’‘‘माँगि नहि सकैत छलैं?’’‘‘माँगने त ऽ रही, तू कखनौ देलै नहि ’‘‘नहि देलयौ त कोन तोरा लढैत बनबाक छौ, जे लाठी के तेल पिआऊँ?’’‘‘एकटा गप्प पूछियौ माय? ’’ डबडबायल आँखि एकदम सँ ढीठ म गेलँ।‘‘पूछ!’’‘‘हम जन्मल रही त दूध उतरल रहौ तोहर छाती में ?’’‘‘हाँ...खूब। मुदा...मुदा तू कहय कि चाहैत हैं?’’‘‘तऽ... हमर हिस्साक छातीक दूध सेहो तौं घरक पुरूष कें पियौने छलैं?’’

(ई लघुकथा हिंदी कें वरि’ठ साहित्यकार चित्रा मुद्गल कें रचना छैन्हि, एहिठाम जकर मैथिली अनुवाद कएल गेल अछि।)

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