आदमी
विचार सँ पैघ होइत छै
वैभव आ अभिमान सँ नहि
जनैत छी
विचारक फुनगी पर
आदमीक प्रवृति टाँगल रहैत अछि
आ ओकर प्रारब्ध
कर्मक गति तकैत अछि
तत्पश्चात्ï
आदमी, आदमी बनैत अछि।
हम अहाँक उपदेशक नहि
हम त मानधन छी
हमर औकात तऽ
एकटा चुट्टी सन अछि
जकर मालगुजारी
हम अपन शब्दक रूप मे अभिव्यक्त करैत छी।
हमर बात मानब त सुनू
अहाँ अपन मनोवृति के बदलु
एहिठाम अहाँ के सभ किछु भेटत
जकरा अहाँ प्राप्त कए सकी
मुदा भाई लोकनि
रस्ता दूटा अछि
पहिने आश्वस्त भए जाउ
जे कोन रस्ता कतए जाइत अछि।
—सतीश चंद्र झा
9810231588
शुक्रवार, सितंबर 4
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1 टिप्पणी:
कविता अच्छी लिखी गयी है ,थोडा मुश्किल से समझ में आयी मगर आ गयी
मुझे मैथिली नहीं आती न
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