गुरुवार, अगस्त 20

पाठकक हृदयकेँ बेधैत हरिमोहन बाबूक मैथिली रचना

व्यंग्य एकटा साहित्यिक अभिव्यक्ति अछि, जे व्यक्ति आ समाजक दुर्बलता, कथनी आ करनीक अंतरक समीक्षा आ निंदाकेँ वक्रभंगिमा दऽ शब्दक माध्यमेँ प्रहार करैत अछि। मिथिला, मैथिल ओ मैथिलीक दुर्दशा, अकर्मण्यता ओ जड़ताकेँ देखि, दीनता-हीनता, आलस्य ओ ईष्र्या, अंधविश्वासक संग-संग अन्यान्य समस्याकेँ देखि, जघन्य अपराध ओ भ्रष्टïाचार, नैतिकताक ह्रïास ओ महगी, मानव अवमूल्यन ओ कूपमंडूकताकेँ देखि हृदय-मानस मे दु:ख-दैन्यसँ उपजल करुण-भाव संचरित होयब कोनो अस्वाभाविक नहि अछि। मिथिला मध्य अमरलती जकाँ चतरल-पसरल एक सँ एक ढोंगी, पाखण्डी, आडम्बरयुक्त पोंगापंथी ओ त्रिपुण्डधारी सभक कुकृत्यक नग्न नृत्य होइत रहल अछि। जाति, धर्म, कर्मकांड आदिक मिथ्या शरण लऽ शास्त्रकेँ 'स्वाहाÓ कएल जाइत रहलैक अछि। हरिमोहन बाबू एकरे अपन रचना सभ मे व्यंग्यात्मक चित्रण कयलनि अछि।
हास्य-सम्राट ओ व्यंग्य-सम्राटक रूप मे सर्वत्र जानल जाइत हरिमोहन लेखनी सँ नि:सृत 'कन्यादानÓ ओ 'द्विरागमनÓ उपन्यास, 'प्रणम्य देवताÓ, 'रंगशालाÓ ओ 'एकादशीÓ कथा-संग्रह, 'चर्चरीÓ विविध-संग्रह, 'खट्टïर ककाक तरंगÓ व्यंग्य संग्रह, 'जीवन-यात्राÓ आत्मकथा सन पुस्तकाकार प्रकाशित पोथी आओर पत्र-पत्रिका मे छिडि़आएल असंगृहीत दर्जनाधिक कविता सभ मैथिलीक धरोहर थिक। गद्य हो वा पद्य व्यंग्यक तीक्ष्णता सँ भरल हास्य रससिक्त हिनक समस्त रचना कटु सत्यक उद्ïघाटन करैत विशिष्टïता प्राप्त कएने अछि।
स्त्री-शिक्षा आ अशिक्षित मैथिलानी पर व्यंग्य हरिमोहन बाबूक उपन्यास 'कन्यादानÓक मुख्य स्वर थिक। एहिमे उपन्यासकार मैथिल समाज मे प्रचलित वैवाहिक विषमताकेँ अपन हास्य-व्यंग्यक पृष्ठïभूमि बनौलनि अछि। एक दिस अत्याधुनिक पाश्चात्य सभ्यताक रंग मे रंगल, मातृभाषा पर्यन्त सँ अपरिचित नायक तथा दोसर दिस प्राचीन मैथिल संस्कृतिक प्रतीक, पाश्चात्य सभ्यता ओ शिक्षा सँ अछूत मैथिलानीक व्यंग्यात्मक चित्र एहि मे प्रकट भेल अछि। 'कन्यादानÓ उपन्यासक समर्पणहि मे व्यंग्यकार दु:खद मन:स्थिति मिथिलाक समाज दिस संकेत करैत व्यंग्यक प्रहारे करैत अछि।
''जे समाज कन्याकेँ जड़ पदार्थवत्ï दान कऽ देबा मे कुंठित नहि होइत छथि, जाहि समाजक सूत्रधार लोकनि बालककेँ पढ़ेबाक पाछाँ हजारक हजार पानि मे बहबैत छथि और कन्याक हेतु चारि कैञ्चाक सिलेटो कीनब आवश्यक नहि बुझैत छथि, जाहि समाज मे बी।ए. पास पतिक जीवन-संगिनी ए.बी. पर्यन्त नहि जनैत छथिन्ह, जाहि समाजकेँ दाम्पत्य-जीवनक गाड़ी मे सरकसिया घोड़ाक संग निरीह बाछीकेँ जोतैक कनेको ममता नहि लगैत छैन्हि, ताहि समाजक महारथी लोकनिक कर-कुलिष मे ई पुस्तक सविनय, सानुरोध ओ सभय समर्पित।ÓÓ
अविस्मरणीय चरित्र सभक व्यंग्य-चित्र सँ सम्पन्न हरिमोहन झाक कथा-संग्रह 'प्रणम्य देवताÓ प्रथम प्रकाशनक अद्र्धशताब्दी व्यतीत भेलहुं पर नवीन अछि, चिर नवीन अछि। 'धर्म शास्त्राचार्य एवं ज्योतिषाचार्यÓ शीर्षक कथाक अंतर्गत धर्मशास्त्र जनित तथा ज्योतिष जनित आडम्बर पर व्यंग्य कएल गेल अछि। एहि संग्रहक कथा मे सामाजिक समस्याक अतिरिक्त पारिवारिक समस्या पर सेहो व्यंग्य कएल गेल अछि। वस्तुत: साझी आश्रमक जे दुर्दशा होइत छैक तकर एलबम भगीरथ झाक परिवार मे भटैत अछि। व्यंग्यकार अत्याधुनिक युग मे फैशनक बढ़ैत स्वरूप पर दृष्टिïपात करैत छथि तँ हुनक लेखनी अत्यधिक प्रखर भऽ जाइत छनि। 'नकली लेडीÓ कोना सहजहि चिन्हल जाइत छथि सेÓ प्रणम्य देवता कÓ अङरेजिया बाबूÓक पत्नी 'चमेली दाइÓ छथि।
हरिमोहन बाबूक व्यंग्यक अत्यंत सजीव चित्र हिनक 'खट्टïर ककाक तरंगÓ मे उपलब्ध होइत अछि। व्यंग्यक सूक्ष्मता एवं तीक्ष्णताक दृष्टिïएँ ई हिनक अत्यंन्त महत्वपूर्ण कृति थिकनि। एहि मे रूढि़-परम्परा, वेद-शास्त्र-पुरान, कर्मकाण्ड-धर्मशास्त्र, गीता-वेदांत, रामायण-महाभारत, ज्योतिष-आयुर्वेद, तंत्र-मंत्र, देवी-देवता, स्वर्ग-नरक, पुनर्जन्म-मोक्ष-पुण्य, साहित्य-इतिहास आदि मे निहित असंगत तर्कओ प्रमाणहीन अवधारणा सभ भरल अछि, तकर नैयायिक एवं व्यंग्यपूर्ण शैली मे, मिथिलाक पारम्परित शास्त्रार्थक परिपाटी मे खण्डन ओ आलोचना कएल गेल अछि। एहि मे वर्णित मर्मस्पर्शी व्यंग्य अंतस्थल मे पहुंचि सुरसुरी लगा दैत अछि। कथानायक खट्टïर ककाक विनोदपूर्ण वार्ता मे व्यंग्यकार हरिमोहन बाबू व्यक्ति-समाज, धर्म-दर्शन आदिक आलोचना करैत अंधविश्वास, धार्मिक पाखण्ड, ढोंग, रूढि़ आदिक प्रति व्यंग्यक माध्यमेँ भयानक विद्रोह करैत छथि।
कतेकोठाम तँ अनेक प्रकारेँ हरिमोहन बाबू अपन रचना मे स्पष्टï कयलनि अछि जे देशक अधोगति एहि दुआरे अछि जे देशवासीक दृष्टिïकोण आधुनिक नहि प्रत्युत आइयो प्राचीन अछि। खट्टïर कका व्यंग्य करैत कहैत छथि :
''विज्ञानक उन्नति करबा लेल तँ पृथ्वी पर और जाति अछिए। कल्पना-विलासक भार सेहो तँ ककरो पर रहबाक चाही। से मनमोदक बनयबाक भार हमरे लोकनि पर अछि।ÓÓ
लोकतंत्रक दुर्गुण पर अपन व्यंग्य बाण सँ पाठकक हृदयकेँ बेधैत खट्टïर कका कहैत छथि :
''हमरा ने लोक मे विश्वास अछि आ ने तंत्र मे। पहिने स्वामीक मत चलैत छलैक। आब बहुक मत चलैत छैक। जेम्हर बेसी हाथ उठल। माथक कोनो मोल नहि। 99 विद्वान सँ 100 मूर्खक मूल्य बेसी। एकटा सतीसँ दूटा कुलटाक महत्त्व अधिक। खुदरासँ थौकक भाव बेसी। ई लोकतंत्र भेल वा थोक तंत्र? बूझह तँ ई तंत्र दुइएटा मंत्र पर चलैत अछि-भोट आ नोट।ÓÓ
एहि वैज्ञानिक युग मे अपन पूर्वजक कीर्तिध्वजा पकडऩे बैसल आजुक मैथिल पर व्यंग्यक कठोर प्रहार करैत खट्टïर ककाक इ गप्प कतेक सटीक बेसैत अछि :
''हाथी चलि गेल, हथिसार चलि गेल, परन्तु हम हाथ मे सिक्कड़ नेने छी। की तँ हमहुं एक दिन हाथी बला छलहुं। हौ बाऊ! जहिया छलहुं तहिया छलहुं। आब की छी-से ने देखू। सूती खऽढ़तर, स्वप्न देखी नौ लाखक। रस्सी जरि गेल, अइठन नहि जरैत अछि। आन-आन देश हिमालयक चोटी पर चढि़ गेल हम खाधि मे पड़ल बजै छी- एक दिन हमरो पुरखा चढ़ल छलाह।ÓÓ
'चर्चरीÓ हरिमोहन झाक विविध रूपक रचनाक संग्रह थिक। एहि मे कथा-पिहानी, एकांकी-प्रहसन, गप्प-सप्प सभ किछु संगृहीत अछि, जाहि मे प्राचीनता एवं आधुनिकता पर समान रूपँे व्यंग्य कयल गेल अछि। परम्परावादी एवं अंधविश्वासी मैथिल संस्कृतिक प्रतीक थिकाह भोल बाबा, जे अपन वाक्ïचातुर्यसँ हास्य ओ व्यंग्यक धारा बहौलनि अछि। व्यंग्यकार कथानायक भोल बाबाक माध्यमेँ प्राचीनकेँ आदर्श मानि आधुनिकता पर व्यंग्यक प्रहार करैत कहैत छथि :
''हाथी केँ मोटर खयलक, घोड़ाकेँ साइकिल खयलक, रामलीलाकेँ सिनेमा खयलक, भोजके ँ पार्टी खयलक, भाँगकेँ चाह खयलक तथा संस्कृतकेँ अंग्रेजी खयलक।ÓÓ
हरिमोहन झा हास्य-व्यंग्यक माध्यमेँ नारी जागरणक शंखनाद कयलनि। 'चर्चरीÓक अनेक कथाक माध्यमेँ ओ मिथिलाक नारी मे दुर्गाक रूप प्रतिष्ठिïत करय चाहैत रहथि। नारी जागरणक फलस्वरूप ओहो सभ आब दहेजक विरोध मे नारा लगबैत छथि।
हरिमोहन बाबूग व्यंग्य प्रतिभाक वास्तविक प्रस्फुटन हुनक कविता सभ मे भेल अछि। 'ढाला झाÓ, 'बुचकुन बाबाÓ, 'निरसन मामाÓ, 'घुटर काकाÓ, 'चालीस आ चौहत्तरिÓ, 'गरीबिनिक बारहमासाÓ, 'आगिÓ, 'कन्याक नीलामि डाकÓ, 'पंडित विलापÓ, 'अङरेजियालड़कीक समदाउनÓ, 'टी पार्टीÓ, 'बूढ़ानाथÓ, 'पंडित आ मेमÓ आदि हिनक व्यंग्य कविता थिक जकरा माध्यमेँ कविहृदय हरिमोहन बाबू विभिन्न समस्या दिस समाजकेँ ध्यान आकृष्टï करबाक सफल प्रयास कएलनि अछि। पद्य-रचना मे सेहो ई हास्य-व्यंग्यक प्रवृत्तिक अवलम्बन कएलनि। प्रारम्भमे ओ धार्मिक आडम्बर ओ रूढि़वादिता पर प्रहार कयलनि, किन्तु बाद मे हुनक कविताक विषय वस्तु बदलैत गैल। 'आगिÓ मे समाजक पांजि-पाटि, सिद्धांत-पतड़ा, हरिसिंह देवी व्यवस्था ओ कर्मकाण्ड पर व्यंग्य भेल अछि। ढोंगी-पोंगा-पंथी पंडित लोकनि हरिमोहन झाक व्यंग्यक वाणक सभसँ बेसी शिकार घायल भेलाह।
'पंडित विलापÓ मे एहन पंडितक दु:स्थिति ओ 'बुचकुन बाबूÓ मे नारीक विकाससँ आहत पंडितलोकनिक आत्महत्या करबाक मन: स्थितिक व्यंग्यात्मक चित्रण भेटैत अछि। आधुनिक जीवनक प्रदर्शन प्रवृत्ति, पार्टीक बाहï्याडम्बर ओ अल्प-भोजनक व्यंग्यात्मक चित्र हिनक 'टी पार्टीÓ, कविता मे बेस मुखर भेल अछि। आधुनिक भइयो कऽ आधुनिकताक घोंकायल स्वरूपक भंडाफोड़ करैत हरिमोहन झा अल्प भोजन देखि नवका पार्टी पर व्यंग्यक प्रहार करैत कहैत छथि :
''दुइए एक फक्का मध्य साफ भेल दालमोट, सेबइ तथा बुनिया और किसमिश विलीन भेल।
एक रसगुल्लामे विलम्ब की लगैत कहु? समतोलाक बाद शेष रहल एक केरा टा।
एक मिनट लागल हैत, ताहीमे साफ भेल, चिनियाक प्लेट हमर निराकार भऽ गेल।
किन्तु उपर योद्धागण युद्ध चलबैत रहलाह, घंटा भरि लागल, किन्तु प्लेट नहि खाली भेल।ÓÓ
'कन्याक नीलामी डाकÓ मे अध:पतित कुलीन प्रथा एवं समाज पर कुठाराघात करैत कन्या विक्रय हेतु पिता पर व्यंग्य करैत हरिमोहन झा कहैत छथि :
''करब कथा पहिने जौं हम्मर सभटा कर्ज सधाबी, चारि सौ जे गनि दियऽ व्यवस्था झट सिद्धांत लिखाबी।ÓÓ
'अङरेजिया लड़कीक समदाउनÓ शीर्षक कविता मे पाश्चात्य सभ्यता ओ संस्कृतिक रंग मे रंगाएल कनियाँक व्यवहार पर व्यंग्यकार कहैत छथि :
''आँगनक बाहर घुमय नहि जयबैक भैंसुर जैताह पड़ाय।
देव पितर किनको नहि हंसबैन्ह सब जैताह तमसाय॥
ओहिठाम जा अण्डा नहि मङ बैक तकर ने छैक उपाय।
जौं मन हो कहबैन्ह चुपचापहि आनि देताह हमर जमाय॥ÓÓ
'बूढ़ा नाथÓ शीर्षक कविता मे व्यंग्यकार हरिमोहन झा मंदिर आ ओकर परिसरक होइत अनुचित प्रयोग, धर्मक नाम पर होइत अधर्म, ध्यान-तर्पण आदिक नाम पर होइत व्यभिचार, पोखरि-घाट पर होइत अश्लीलताक प्रदर्शन आदि पर व्यंग्यक प्रहार करैत लिखैत छथि :
''हे जीर्ण-शीर्ण पचकल पाथर/सरिपहुं छी पाथर अहां भेल
पथरायल तीनू आंखि आब तेँ/झाम गुड़ै छी चुप बैसल
किछु सक्क लगै अछि जौं नहि तँ/व्यर्थे गाड़ल छी एहिठाम
बहराउ, काज लोढ़ाक दियऽ/खट्टïर काका पिसताह भाङ।ÓÓ
सुधारक नाम पर समाजकेँ ठकनिहार महापुरुष लोकनि पर व्यंग्यक प्रहार करैत हरिमोहन झा 'सनातनी बाबा ओ कलयुगी सुधारकÓ शीर्षक सचित्र कविता लिखलनि जाहिमे तत्कालीन समाज मे व्याप्त रूढि़, अंधविश्वास, नारीक दुर्गति, विचार ओ व्यवहार मे अंतर, बाह्यïाडंबर आ सुधारवादी खोलमे नुकायल ढकोसला आ ढोंग पर व्यंग्यक कठोर प्रहार कयलनि अछि :
''बाहर बाजथिÓÓ तिलक प्रथाकेँ विषय सभ जानूÓ। घर मे बाजथि, 'दुइ हजार सौं कम नहि आनूÓ॥
बाहर बाजथि 'छुआछूत केँ शीघ्र हटाउ। घर मे बाजथि 'ई चमैनि थिक, दूर भागऊÓ॥
महगी, बेकारी, भ्रष्टïाचार, मूल्यहीनता आ समाजक विमुखता पर व्यंग्यक प्रहार करैत हरिमोहन झा कतोक कविताक रचना कयने छथि। महंगीक एकटा व्यंग्यात्मक चित्र हुनक 'नव नचारीÓ मे सेहो देखल जा सकैछ :
''केहन भेल अन्हेर ओ बाबा, केहन भेल अन्हेर। भात भेल दुर्लभ भारत मे, सपना धानक ढेर॥
मकई मखनाक कान कटै अछि, अल्हुआ खाथि कुबेर। मडुआ मिसरिक भाव बिकाइछ, जीरक भाव जनेर॥
सबसँ बुडि़बक अन्न खेसारी, सेहो रुपैये सेर॥ÓÓ
पटना नगरपालिकाक दुव्र्यवस्था पर व्यंग्य करैत हरिमोहन झा अपन आत्मकथा मे उल्लिखित 'पटना स्तोत्रÓ शीर्षक कविताक अंश मे कहैत छथि :
''हे धन्य नगर पटना महान/मच्छड़ करैत छथि यशोगान
सड़कक रोड़ा अछि शोभायमान/अलगल ओलक टोंटी समान
हम देखि रहल छी तेहन शान/जे देखि न सकल फाहियान।ÓÓ
उपर्युक्त विवेचन विश्लेषण सँ ई स्पष्टï होइत अछि जे अपन कृति सभ मे तीक्ष्ण व्यंग्य गर्भित उक्तिक कारणेँ हरिमोहन झा 'व्यंग्य-सम्राटÓक उपाधिसँ विभूषित कएल जाइत रहलाह। अपन 'आत्मकथाÓ मे ओ स्वयं लिखैत छथि 'प्रणम्य देवताÓ हमरा 'हास्य रसाचार्यÓक विशेषण देऔने छलाह, खट्टïर ककाÓ व्यंग्य-सम्राट,क उपाधि देयौलैन्हि।ÓÓ ओ पुन: लिखैत छथि-''हमर साहित्य-सर्जनाक एक और दिशा छल हास्य-व्यंग्यपूर्ण कविता।ÓÓ
एहि तरहेँ व्यंग्य-सम्राट हरिमोहन झाकेँ समग्रता मे देखला सँ एकटा स्पष्टï धारणा बनि जाइत अछि जे समाजक विसंगति आ विकृतिकेँ उपहास, कौचर्य, कुचेष्टïा, निन्दा, आलोचना ओ वर्णना द्वारा समर्पित करबाक प्रयास मे व्यंग्यक ततबा लेप चढ़ा दैत छलाह जे पाठक-स्रोतकेँ व्यंग्यक वाण आघात तँ करैत छलैक मुदा ओ 'इस्सÓ नहि कऽ सकैत छल। चोट तँ लगैत छलैक मुदाÓ ओहÓ नहि कऽ सकैत छल।
सिद्धांत आ व्यवहार मे भेद, सत्य आ मिथ्या मे भ्रम, रूढि़केँ धर्म मानव, दंभ, पाखण्ड, कृत्रिम आचरण, मूर्खतापूर्ण अहंकार, प्राचीनताक अंधभक्ति, अंधविश्वास इत्यादिक झोल जे तत्कालीन समाजकेँ विकृत कएने छल, तकरा अपन रचना मे व्यंग्य-वक्रोति आ हास्यक झाड़निसँ झाडि़ हरिमोहन बाबू समाजक आधार-विचारक स्वच्छता, निर्मल विवेक तथा सुसंस्कृतिकेँ प्रतिष्ठिïत करबाक आजीवन प्रयास करैत रहलाह।
अपन रचनाकेँ वास्तविक ओ उपयोगी बनयबाक हेतु हरिमोहन झा तर्क ओ वाक्ïपटुता, जाहि मे व्यंग्यक समावेश किछु विशेष स्तर धरि आकषर्णक सृष्टिï करबाक हेतु कएल गेल, ताहि आधार पर अपन लोकप्रियता अर्जित कयलनि। हुनक विचार एकांगी होयतहुं परिपक्व अछि, व्यंग्य-हास्यमंडित होयतहुं चहटगर अछि जाहि दिसि जनसामान्य बिनु कोनो प्रयासक स्वत: आकृष्टï भऽ जाइत अछि।

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