सोमवार, दिसंबर 21

कलाक चौंसठि संख्याक रहस्य आ कलाक मूलाधार

कलाक चौंसठि संख्याक रहस्यक दिसि दृष्टिï देला पर ई कहल जा सकैत अछि जे ऋग्वेदक मंत्र अष्टïक अध्याय एवं वर्ग मे व्यवस्थित अछि। आठ अष्टïक, चौंसठि अध्याय, दू हजार चौबीस वर्ग तथा दस हजार पांच सौ नवासी मंत्र अछि। सायणक अनुसार मंत्रक संख्या दस हजारि चार सै नवासीए अछि। पांचाल एही हेतुए ऋग्वेदक चतु:षष्ठिï संज्ञा देलनि। एहि तरहेँ चौंसठि संख्या केँ पवित्र स्वीकार केल गेल अछि। कामशास्त्र केँ ऋग्वेदक सदृश धार्मिक प्रतिष्ठïा एवं पवित्रता देवाक हेतुएँ वार्भव्य पांचाल चौंसठि उपविभाग मे विभक्त कैलनि अछि। ऋग्वेदक दसम मंडलक समानहि एकरहु दस मुख्य भाग थीक। यैह कारण अछि जे एकरा चतु:षष्ठिïक नाम सँ सेहो अभिहित कैल जाइत अछि।
कलाक वर्गीकरण वात्स्यायन सँ पूर्वहि भऽ चुकल छल। पांचाल चतु:षष्ठि कलाक निर्देश कैने छलाह। जैन-गं्रथ चौंसठिकला केँ चौंसठि 'महिलागुणÓ रूप मे सेहो प्रस्तुत करैत अछि। एहि क्रम दसम एगाहरम शताब्दी मे विरचित 'कालिकापुराणÓ मे ब्रह्मïा एवं संध्याक प्रेम प्रसंग मे चौंसठिकलाक उल्लेख भेटैत अछि। एहि तरहेँ विभिन्न पुराण साहित्य आदि मे चौंसठि कलाक उल्लेख प्राप्त होइत अछि। मुदा एहि चौंसठियो कलाक नव-नव विश्लेषण क्रमश: बाद मे एक-एक कला केँ लऽ ओकर विभिन्न अंगोपांगक विस्तृत वर्णन कैल गेल और ई विभिन्न प्रस्थानक रूप मे एक पृथक स्थान प्राप्त करय लागल। विभिन्न कलाक प्रयोजन सेहो चतुर्वर्गक प्राप्ति सैह सूचित कैल गेल अछि। साधनक दृष्टिïएँ विभिन्न कलाक मौलिक आधारक प्रश्न अछि ई स्पष्टï अछि जे पौराणिक देव स्वरूपक विश्लेषणक संगहि संग कलाक सभ भेदक सांगोपांग विश्लेषण उपलब्ध भऽ सकल अछि। वेद मे कला शब्दक मात्र प्रयोग भऽ गेला सँ कलाक मूलाधार वेद नहि कहल जा सकैत अछि। किएक तँ मूर्ति निर्माण आदि वस्तु बहुदेववादक आधारहि पर विकसित मानवाक हएत। संवादसूक्त केँ नाटक मूलाधार एवं सामवेदक गान केँ संगीतक मूलाधार मानवा मे हमरा कोनो तरहक आपत्ति नहि अछि आ ने एही मतवैभिन्य अछि जे वाद्यक कतिपय रूप वेदकाल मे उपलब्ध छल। किन्तु ई एकांत सत्य थीक जे वास्तुकला, संगीतकला, मूर्तिकला, चित्रकला आदि जे विकसित रूप उपलब्ध होइत अछि एवं विषम संबंध अधिकारी एवं प्रयोजनक संग विभिन्न कलाक शाास्त्र सभक पुराणहिक देन थीक। भगवानक विभिन्न अवतार एवं लीलासभकेँ मूलाधार बना कऽ मूर्तिकला अपन चरम उत्कर्ष पर प्रतिष्ठिïत भऽ गेल। ओहि देवता सभक तथा पौराणिक राजलोकनिक नगर, देवालय, चैत्य आदिक विभिन्न वर्णनक अनुसार वास्तुकला अपन विकसित स्वरूप मे अवस्थित भेल। पौराणिक मूर्ति एवं वास्तु निर्माणक साक्ष्य आइ पर्यन्त भारतीय देवालय एवं खंडहरक रूप मे हमरा लोकनिक समक्ष उपस्थित अछि। चित्रकला सँ निश्चये पुराणक देन थीक। जहाँधरि संगीतक प्रश्न अछि ओकर विकास पुराण मे वर्णित सरस्वती, नारद, शिव, पार्वती, गंधर्व, अप्सरा सभ एवं विभिन्न राजसभाक संगीताचार्य लोकनिक आधारहि पर मानवाक इएत। पुराण सभ मे कोनो कलाक वर्णन मे लेखनी केँ संकुचित नहि राखल गेल अछि। एतबए नञि प्रत्येक कलाक एक एहन आचार्य एवं अधिष्ठïात्री देवताक स्वरूप उपलब्ध होइत अछि जकर साधना सँ ओहि कला मे परम प्रौढ़ता प्राप्तिक सूचना भेटैत अछि। समय-समय पर मय एवं विश्वकर्मा द्वारा कतेको अलौकिक नगर-निर्माणक सूचना पुराण मे देखि, ओकर अपूर्व वर्णन केँ पढि़ चिर विस्तृत, मंत्रमुग्ध कल्पना जगत मे विचरण करैत अकस्मात ई कहवाक हेतु बाध्य होमय पड़ैत अछि जो ओहि निर्माणक दृष्टिï सँ हमर स्थापत्यकला सर्वथा अपूर्ण अछि। शिवक ताण्डव, पार्वतीक लास्य, गंधर्व एवं अप्सरा सभक संगीतलहरी, सरस्वती एवं नारदक तंत्रीक झंकार अद्यपर्यंत पौराणिक शब्दक द्वारा हृत्तंत्री केँ किछु क्षणक लेल झंकृत करवा मे समर्थ होइत अछि। अत: बिन्दु इच्छोक ई स्वीकार करवाक लेल बाध्य होमय पड़ैत अछि जे विभिन्न कलाक मूलाधार पुराणहि अछि।

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