शनिवार, फ़रवरी 28

कथा / एना कते दिन

- सतीश चन्द्र झा

स्वच्छ आ निर्मल आँखिमे जेना नोर झिलमिलाए लागैत छैक अथवा ओसक बुन्न फूल पर चमकय लगैत छै, तहिना ओकर ठोरो पर मुस्की नुका नहि सकैत छलैक। कखनहु कोनो बात हो कोनो प्रसंग हो ओकर मुस्की सुहागिनक लाल-लाल सिन्दूर सँभरल सीथ जकाँ हरदम चमकैत रहैत छलैक। सैकड़ो युवतीक छटाक तुलना मे ओकर आकर्सक व्यक्तित्वक मुस्कीक कोनहु विकल्प नहि छलैक। किओ देखै वा नहि, हमर आँखि ई सुखक लेल सदैव उत्सुक रहैत छल।
कक्षामे ओ हमरे पाँजरवाला बेंच पर बेसैत छल, दिन मे कतेक बेर ओकर आ हमर आमना-सामना होइत छल। जहन देखू प्रसन्न, जखन गप्प करू वैह चंचलता सँ परिपूर्ण। अपन छटा केँ आव’यकता सँ बेसी आकर्सक बनेबामे प्रयत्नरत। अनुभा हमरा लेल प्रेरणा छल। ओकर मुस्की हमरा एतेक प्रभावित केने छल जे हम एक दिन पूछिए देने छलियैक -
अनुभा ! एतेक मनमोहक मुस्की अहाँकेँ कतय सँ भेटल ?
ओ हमरा दिस ताकि गंभीर भ गेल छल आ पुनः एकटा वैह आकर्सक छटा वाला मुस्की द देने छल। बुझु जे ओ हमर उतर द देने छल।
मुदा ओहि सं हमरा संतोस कतय ? हम त ओकर चान एहन मुखमंडल सँ सुनय चाहैत छलहुं। हमर बड जिद पर ओ कनेकालक लेल गुम्म भ गेल फेर कहलक - ई त हमर स्वभाविक गुण अछि, ई नैसर्गिक अछि। कोना कहु जे कतय सँ भेटल।
बातो सत्य छलैक। किओ कोना कहि सकैत अछि जे हँसब बाजब, कानव कखन ककरा कतय सँ भेटलै, हमहु केहन बात करय लागल छलहुँ।
हमरा ओहिना स्मरण अदि जे परीक्षाक व्यस्त दिन छल, ओहि समय कखन साँझ होइत छल, कखन खेबाक बेर होइत छल, किछु पतो नहि रहैत छल। किताबक पन्ना आँखिमे नचैत रहैत छल। नील रोसनाई सँ लिखल नोटक वाक्य ओहिना दिमाग पर आच्छादित रहैत छल। एहने व्यस्तता सँ भरल दिनमे एक दिन एकाएक भेट भेल छल अनुभा सँ। कने ध्यान द देखतहुँ त उदास भ गेल छलहुं - जगरना सन आँखि, ठोर पर पपड़ी जमल आ ओ मनमोहक मुस्की नहि जानि कतय हरा गेल छलैक। पूरा हालत अस्त-व्यस्त। ओकर एहन हालत देखि नहि जानि मन मे केहन-केहन गप्प आबि रहल छल। करेक धड़कन अपन दैनिक गति सँ तेज भ गेल छल। हम घबरायले भावे पुछलियैक - कि भेल अनुभा ?
ओ चुप्प छल। ओकरा चुप्प देखि हमरा रहल नहि भेल। ओकर दुनू कान्ह कें डोलबैत पुछलियै - आखिर बात की अछि अनुभा ? किएक ने बाजैत छी? कहुने जे कि भेल ?
ओ मुस्कीक व्यर्थ प्रयास करेत् कहलक - संजू! हमर परीक्षा खराब भ गेल अछि, हम ठीक सँ लिखि नहि सकलहुँ अछि। एहि साल पासो होएब असंभव बुझायत अछि आ ओकर आँखि सँ नोर खसि पड़ल छलैक।सान्त्वना दैत हम कहलियै - केहन गप्प करैत छी अनुभा, ई कोनो एहन बात त नहि जाहि लेल अपन जीवने बदलि देल जाए। आदमी अपन स्वभाविक स्वभाव बिसरि खंडहर बनि जाए। अहाँ बताहि त नहि भ गेलहुँ अछि अनुभा ? देखु त अपन हाल कि सँ कि कय लेलहुं अछि। देखु अनुभा, मेहनति करब हमर कर्तव्य थीक; सफलता-असफलता ई त हमर हाथमे नहि अछि, तहन एतेक चिन्तित हैब व्यर्थ थीक। ई त सर्वविदित छैकने जे महाभारक युद्ध मे श्रीकृ’ण जनैत छलथिन्ह जे अभिमन्यु जे युवावस्थाकेँ प्राप्त केने छल, चक्रव्यूह मे मारल जायत, यद्यपि ओ बचा सकैत छलथिन्ह मुदा ई कहि जे होबाक छैक से भइए क रहैत छैक आ अभिमन्यु अपन कर्तव्यकेँ खूब नीक जकाँ निमाहलक। हुनक आगां त हम अहाँ ....।
अनुभा बाजल, नहि संजू! अहाँ नहि जनैत छी, एहि साल पास होयब हमरा लेल बड आव’यक अछि, बेर-बेर असफलता सँ हमर स्थिति केहन भ गेल अछि से अहाँ जनैत छी ?
हम उदास भ कहलियै - कि करबै अनुभा ! जे होबाक रहैत छैक ओ त भइएक रहैत छैक।
प्रयास करितौ ओ मनमोहक मुस्की अनुभाक मुख पर नहि आबि सकल छलै आ ओ विदा भ गेल छल। किछु दिनक बाद ओ आयल छल। वैह हालति, ओहिना खिन्न, वैह उदासीक रूप। हम पुछलियै - अहाँक भूत एखनधरि नहि उतरल अछि कि ?
ओ मन्हुआयले मोन सँ कहलक - उतरि जायत। जे होबाक छल से त भ गेल, आब कथिक लेल कानब आ कथीक भूत। ई किताब अनालहुं अछि से ल लिअय।
हम आ’चर्य भ पुछलियैक - कि आहाँ आगू नहि पढब ? पढाई-लिखाई त भाग्यक खेल अछि, किछु दिनक बाद हमर विवाह भ रहल अछि , फेर केहन पढ़ब-लिखब - ओकर उत्तर छल। मुदा ? मुदा कि संजू ? जँ किछु कहबाक हो त कहि दिअय, नहि जानि फेर भेट हैत कि नहि ? हम त अपन मनक गप्प कहबा लेल छलहुँ कि बीचहि मे.... जे अहाँके किछु कहबाक हो त कहि दिअ... लेकिन हमहु किछु कहि नहि सकल छलियैक। हमरा लागल जेना ओ विव’ा छली आ विदा भ गेल छली मुदा एक तूफान सन बिहाड़ि छोड़ि गेल छली जाहि सँ हमर अन्तःकरण आंदोलित भ गेल छल, जे आइयो ’ाांत नहि भ सकल छल आ केतको प्र’न हमर मन मे अउनाइत रहल हम किछु क नहि सकलहुँ।
आब हमहुँ बैंकक नौकरी करय लागल छलहुँ। एहि साल गृहस्थी जीवन मे प्रवे’ा केने छलहुं। आफिस जयबाकाल पत्नी कहने रहथि - हे सुनै छी, आई कने जल्दी चलि आयब; आई साँझ मे अस्पताल जयबाक अछि। से किएक ? कि अस्पतालक .....
धूर जाउ, अहाँके त हरदम हँसीए मजाक बुझाइत अछि; हमर गामक जे फुचाई बाबू छथिन ने, तिनके बेटी अनुभा अस्पताल मे भर्ती छैक, कने जिज्ञासा क लेनाई जरूरी ने छैक - हँ-हँ अव’य, इएह सब त समाज मे, परिवार मे नाम रहि जाइत छैक, मुदा अनुभाक नाम नाम सुनितहि हमर मन डेरा गेल छल, मनमे एक अजीब सन भयक संचार होमय लागल छल, मुदा मन कें सम्हारैत आफिस विदा भ गेलहँु।
साँझ मे अस्पतालक वास्ते विदा भेलहुं, मुदा रिक्सा पर मन घबरा रहल छल आ रहि-रहि क एक्के बातक डर भ रहल छल जे वैह अनुभाक त नहि अछि। एहि बात सँ भरि देह पसेनाक बुन्न छोड़ि देने छल। जेबी सं रूमाल बहार क हम पोछय लागल छलहुं। जाड़ो मे पसेना छुटि गेल, कि अस्पतालक डर होइत अछि ? नहि... नहि एहन बात नहि छैक; आॅफिस सँ अएलाक बाद तुरंते विदा भ गेलहुं अछि ताहि कारण मन कने थाकल बुझाइत अछि - हम पत्नीक बातकेँ अनठियबैत कहने रहियैन्ह। अस्पताल पहुंचलहुं त ओहिठाम हड़बिरड़ो उठल छल, डाक्टर, नर्स आ कम्पाउण्डर सब किओ इम्हर सँ ओम्हर दौड़-बरहा क रहल छल। आॅपरे’ान घरक एक कोनमे बैसल ’ाोक संतप्त परिवार दिस हमर पत्नी चलि गेलीह आ गप्प गेलाक बाद ओहो उदास भ गेल छलीह। एहि सबटा घटनाक हम मूकदर्’ाक बनल रहलहुँ जेना एही वास्ते हम आयल रही।
ओहिठाम कातमे बैसल एकटा अति ’ाोक संतप्त युवक दिस हम बढि गेल छलहुं, हुनकहि सँ ज्ञात भेल जे हुनकहि पत्नीक आॅपरे’ान भ रहल छन्हि; संगहि इहो कहलनि जे जहिया सँ हुनक विवाह भेलनि अछि तहिया सँ पत्नी अस्वस्थे रहैत छथिन आ ताहिमे दोसर बेर माँ बनि रहल छथि। डाक्टर लोकनिक कहब छन्हि जे बच्चा त बाँचि जायत मुदा .....
नहि... नहि... एहन बात नहि बाजू सभक रक्षा भगवान करैत छथिन्ह, ऐना जँ अहिं करब त फेर .....एहि बीच कन्नरोहट उठि गेल छलै, ओहो युवक ओम्हरे दौड़ गेल छलाह मुदा पत्नी सदाक लेल संग छोड़ि गेल छलथिन्ह। हमरो आँखि सँ नोर टघरय लागल छल आ धीरे-धीरे ओम्हरे डेग बढ़ा देने छलियैक। अनुभा.... ! एकाएक ओकर ’ाव देखि हमर बढल डेग रूकि गेल छल। हमरा जकर अनुमान भेल छल ओ साक्षात सामने छल, वैह अनुभा जे कहियो हमर प्रेरणा छल। हम त कल्पना मे नहि सोचने रहि जे अनुभा सँ फेर भेट हैत ; मुदा विडंबना देखु जे भेटो भेवा कयल त लहासक रूप मे। ओकरा संग बीतल युवावस्थाक दिन हमिरा स्मरण आबय लागल छल, देह थरथराय लागल छल, कहुना क अपनाकेँ सम्हारैत कहुना कय डेग आगू बढेने छलहुं। डाक्टर लोकनि सं ज्ञात भेल जे एकर मुख्य कारण जल्दीए दोसर बेर माँ बनब अछि कारण एक बच्चाक बाद ’ाारीरिक रूपेँ त ओ ततेक ने कमजोर भ गेल रहथि जे दोसर बेरक हेतु ओ एखन तीन-चारि साल धरि माँ नहि बनि सकैत छलीह। मुदा से नहि भ सकल छलन्हि.....। बादमे हमरो दुखो भ रहल छल जे ओहि युवक कें हम बहुत बातो कहि देने रहियैन्ह जे पढि-लिखि गेलाक बादो अहांलोकनि भावुकताक प्रवाह मे ऐना ने बहि जाइत छी जे भवि’यक कोनो चिन्ते नहिं। जँ आइ उचित परिवार नियोजनक कार्यप्रणाली पालन केने रहितहु त आई एहन परिस्थिति नहि अबैत, हमर बात पर ओ कानय लागल छलाह आ हमरो आँखि सँ नोर खसि पड़ल छल।

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बुधवार, फ़रवरी 25

सोच पाथर त नहि भ गेल


- विपिन बादल


चारूकात हल्ला भ रहल अछि जय हो। जय हो। जय हो। आखिर ककर जय ? अप्पन मौलिकता कें आ कि विदे’ाी चाटुकारिता कें ? कें फरिच्छौट करत ? अपना कें निकृ’ट देखा कय पुरस्कार जीतब कि जीत थिक ? निर्णय के करत? जहन लोकतंत्रक मंदिर सेहो थपड़ी पीट रहल अछि, बिना किछु सोचने-बुझने त हमर-अहांक कोन कथा ?

गप्पक केंद्र में अछि स्लमडाॅग मिलेनियर कें आॅस्कर भेटब। एकर जं अप्पन भासा मे अनुवाद कय क कही त अर्थ होइत अछि झोपड़ी मे रहनिहार करोड़पति कुक्कुर। कि ई सुनि मौन हर्’िात भेल ? हमरा जनितबै किन्नो नै। हमरो नहि भेल त अहांकें कोना हएत। मुदा, किछु वि’िास्ट लोक छथि जिनका अपने बगेबानि आ आत्मसम्मान कें कोना सरोकार नहि रहैत छैन्ह। ओहेन लोक लेल कहल गेल अछि , हेहरा ....... जन्मल गाछ आ हेहरा कहलक हम छाहरि मे छी। कमोबे’ा इएह स्थिति भ गेल छै आॅस्कर के लय क।

विचार करी। कि एहि सं पहिने संगीतकार ए आर रहमान कें कोनहुं टा मौलिक संगीत नहि रहैन्ह जे एहि बेर ओ पुरस्कृत भेला? रोजा सं लय क एखनधरि हुनक संगीत सुनल जाए त आन्हरों कहि दैत जे ई गीत कें रहमान संगीत देने छैथ। कि एहि तरहक गप्प किओ बर्मन आ नौ’ााद साहबक संगीत कें संगे कहि सकैत अछि ? पाथेर पांचाली, प्यासा, मदर इंडिया, गांधी, लगान कि एहि सिनेमा सं कमजोर छल! किन्नो नै। त आखिर कियैक नहि भेटलै ओकरा पुरस्कार? विचार करी।

इतिहास कें हिसाब सँ जहन भारत गुलाम छल त कतेको रास जगह पर कहल जाइत छल- इंडियन एण्ड डाॅग्स आर नाॅट एलाउड। आइयो लोकक एहि मानसिकता मे कोनो तरह बदलाव नहि आयल। आॅस्कर मे जाहि सिनेमा के ल क धूम मचल, ओकर कथ्य आ परिवे’ा कि छैक, कहबाक जरूरति नहिं। सिनेमा देखि लिअय, आँखि फूजि जाएत। त किएक खु’ाी मानबी ? किओ हमरा कुक्कुर कहैथ आ हम गौरवान्वित महसूस करी, ई हमर मजबूरी त नहि।


मंगलवार, फ़रवरी 24

धरोहरि / गोलैसी

- सुधां’ाु ’शखर चैधरी

संसारमे जे सार अछि, व्यापार गोलैसी
दुनिया भरिक सभ कारमे सुख-सार गोलैसी।

प्रति योगमे अति भोगमे सभठाँ जे अछि हूसल,
तकरा ले नि’चय राखल अछि उद्धार गोलैसी।

किछु ने सकी, ध ने सकी, ल ने सकी किच्छु,
भिड़ि झटहि फांड़ ध करय उपकार गोलैसी।

निगुँटक नहि चलय आ कि डेग बढ़य एक,
गुटबाजकेँ सभ किछु देअय अनिवार गोलैसी।

ई’र्यामे छुच्छे पाकि क ने लोभ आर लाभ,
जे कतहु न भेटय, भेटय दरबार गोलैसी।

पूछी तँ आई पुण्य-स्थल बड़का टा बनल अछि,
जादू ते अनतय चलि ने सकय चमकार गोलैसी।

केहनो पहाड़ खसय आ मरि जाय बड़ अयोध,
जँ देअय बड़े जोरसँ ललकार गोलैसी।

( नोट - धरोहरि स्तंभक अंतर्गत हमर सभहक प्रयास अछि जे मैथिलीक नामचीन लेखक रचना सँ पाठक लोकनि केँ साक्षात्कार कराओल जाए। ताहिं एहि मादे साहित्य अकादेमी पुरस्कार विजेता स्व. सुधां’ाु ोखर चैधरीक ई रचना प्रस्तुत कयल जा रहल अछि। आगाँ दोसरों लेखकक लेखनी सँ जल्दीए संपर्क कराओल जाएत। - संपादक )

सोमवार, फ़रवरी 23

कविता / पीयर-हरियर

जहन पीयर पात झरैत अछि
हरयिर पात हँसैत नहि अछि
ओ, थोड़ेक सिहरि उठैत अछि
ओहि फौजी जकाँ
जे देखि रहल अछि
गोली लगला पर खसैत अप्पन पडोसी कें।
सर्दीक सर्द हुअन सें
जहन फूलय लागैत छै ओकर नस
ध्यान आबैत है ओकरा
नियति कें रंग पीयर
आओर ओ म जाइत अछि सुन्न।
आ पीयर पता सडैत अछि वेग सँ
जाहि सँ ओ बनि सकैछ हरयिर पात
खिला सकैय फूल
अगिला बसंत में
हरियर पात नहि जानैछ, किछुओ
करलाक बाद आत्मा कें , सफर कें बारे में।
हरियर पातक दुख पीयर पीयर छै
पीयर पातक सपना हरियर-हरियर
ताहिं, जहन नवतुर हँसैत अछि
सूरजमुखी खिलैत अछि
आओर ... हाँ, ताहिं बूढ़क
नोर झिलमिलाइत अछि
मणि जकाँ।

- के. सच्चिदानंद

मंगलवार, फ़रवरी 17

"बनेने सुनेने कनियाँ नहिं तऽ धनियाँ"

"बनने सुनेने कनियाँ नहिं तऽ धनियाँ" कहबाक तात्पर्य जे कोनो विषय वस्तु वा व्यक्ति के जतेक सजा कऽ राखु ततेक ओ सुन्दर लगैत अछि, संगहि ओकर उपयोगिता सेहो बनल रहैत छैक। केहनो सुन्दर, समृद्ध आ सामर्थ्यवान विषय - वस्तु के निरंतरता रखवाक लेल ओकर धार के माजैत रहऽ पडैत छैक। जहिना कोनो बेकारो सऽ बेकार चीज के श्रृंगार सऽ सुन्दर बनावल जा सकैत अछि। एतय श्रृंगार सऽ तात्पर्य वृहत संदर्भ में अछि। हम भाषा के सोंदर्य आ समृद्ध के सन्दर्भ में बात क रहल छी। फकरा, मुहाबरा, कहाबत, उपमा, कहवी आदि भाषा के
श्रृंगार होइत अछि। एही सभक समावेश सऽ भाषा ने सुन्दर बनैत अछि अपितु ओ समृद्ध सेहो बनैत अछि। मुदा वर्तमान समय मे मैथिली भाषा के ई श्रृंगार तऽ लगभग समाप्ते भेल जा रहल अछि। कहवा में कोनो अतिश्योक्ति नहिं जे "ने आब देवी ने कराह"। व्यवसायिक आ रोजगारपरक शिक्षा के एहि युग मे कोनो युवा के झुकाव अपन भाषा दिस नहि रहि गेल छन्हि आ ने एहि के संबाहक बनवाक लेल पहिलका पीढी के कोनो विशेष लगाव रहि गेल छन्हि। अपने घर मे उपेक्षा के शिकार मैथिली भाषा अपन मौलिक सोंदर्य सऽ बंचित भऽ रहल अछि। मौलिकता के अभाब आ दोसर भाषा के अनावश्यक समावेश सऽ मैथिली भाषा के स्वरूप विक्रृत भऽ रहल अछि। ओ दिन दूर नहिं जे उपेक्षा के दंश भोगि रहल मैथिली भाषा सऽ फकरा पुर्ण रुपे विलुप्त भऽ जायत। हम सब भाषा के अलंकार फकरा बचेवाक लेल किछु प्रयास कऽ रहल छी। यथासंभव एतऽ फकरा संकलित करब, एहि प्रयास में पाठक सभक सहयोग अपेक्षित अछि। लिंक के माध्यम सऽ मैथिली कहवी पठा सकैत छी।
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फकरा





शनिवार, फ़रवरी 14

लघु कथा / डायन




अंकुर कुमार झा




सुंदर बाबु के मरला के किछुये दिनक बाद स समूचा गाम पाही वाली के डायन कह लागल। सब हुनका सं ई”र्या करैत छेन। मौगी हुवै वा पुरू”ा, जवान हुवै वा वृद्ध सब हुनका सं कन्नी काटैत छेन। बच्चा सब हुनका देख क भागैत अछि। पहिले त सब कानाफूसी करैत छल, मुदा आब त खुलेआम बाज लागल अछि। सब कहैत अछि जे मुसबा के गाय के वैह मारि देलखिन। मोहन बाबू के बच्चा के वैह खा गेलखीन। एत तक की बरहारावाली के रोगक दो”ाारोपण हुनके पर कैल जा रहल अछि।


पाहीवाली लोकक गप्प सुनि दुखी छैथ। सामाजिक व्यवहार देखि क्षुब्ध छैथ। अपना आप के अवहेलित महसूस करैत छैथ। एहि सोच मे पडल छैथ जे ऐना कियैक जाॅ हम ककरो जान ल सकैत छी वा ककरो रोगग्रस्त क सकैत छी त हम ओहि लोकक विचार कियैक नहि बदैल सकैत छी। मुदा अंधवि’वासक भंवरजाल मे फंसल लोक सब ई बुझ’ लेल कहां तैयार अछि ।

कविता /पागल

- के. सच्चिदानंद


पागलंक कोनो जाति नहि होइछ
न´ि धर्म होइछ
ओ लिंग मेद सँ इतर होइछ
ओकर चालि-चालन अपनहिं होइछ
ओकर “ाुद्धताकें जानत
बड कठिन छै।

पागलक भा’ाा सपना कें भा’ा नहिं
ओ त ककरो दोसरे कें यथार्थ होइछ
हुनक प्रेम चाँदनी थिक
जे पूर्णिमा में उपड़ैत-बहैत अछि।
जहन ओ ऊपर दि”ा देखैत अछि
त ऐना देखैत लगैछ
जकना कहियो सुनल-गुनल न´ि होईहि
जहन हमरा लगैत अछि जे
ओहिना कन्हा झटकि रहल अछि ओ
त उड़ि रहल रहैत अछि ओहि समय ओ
नुकायल पाँखिल संग।

हुनक विचार अछि जे
माछी में आत्मा होइछ
मगवान टिड्डा बनि हिरयर टांग पर
फुदकैत छथि
कखनो-कखनो त हुनका गाछ सँ
“ाोणित टपकैत देखाइत छैन्हि
कखनो-कखनो बाट पर
“ोर दहाडै़त देखइत छैन्हि।

कखनो-कखनो बिलड़ि कें आँखि में
स्वर्ग चमकैत देखैत छथि
एहि काज मे त ओ हमरे जकाँ छथि
तइयो, चुट्टी कें झुण्ड कें गाबैत
केवल वैह सुनि सकैत छथि।

जहन ओ सहलावैत छैथि हवा कें त
धरती कें धुरी पर घुमावैत
बिहाड़ि कें पालतू बनाबैत
जहन ओ पयर कें पटकि क चलैत छथि त
जापानक ज्वालामुखी कें
फटनाम सँ बचा रहल होइत छैथि।

पागलक समय सेहो दोसर होइह
हमर एक सदी
हुनक लेल एक पल होइत अछि
बीस चुटकिए पर्याप्त अछि हुनक लेल
भगवान लग पहुँचबाक लेल
आठ चुटकी मे त ओ बुद्ध लग पहुँ जेताह।

दिन मरि मे त ओ
आदिम विस्फोट मे पहुँच जेताह
ओ बेरोक चलैत अछि
किएक त धरती चलैत रहैत अछि
पागल,
हमरा जकाँ
पागल न´ि होइछ।

परिचयः- मलयालम कें प्रख्यात कवि के.सच्चिदानंदन क कविता कें पंजाबी में अनुवाद डा. बनीता कएलीह,जे ‘‘पीले पत्ता का सपना’’ “ाीर्’ाक सँ पुस्तक रूप में साहित्य आकादमी, दिल्ली द्वारा वर्’ा 2003 में प्रका”िात मेल। ई कवि एहि पंजाबी कविता संग्रह सँ लेल गेल अछि, जकर पंजाबी सँ हिन्दी अनुवाद सुभा’ा नीरव कएलाह। मैथिली में कविताक अनुवाद हिन्दी सँ कएक गेल। श्री. सच्चिदानंदन साहित्य अकादमी कें सचिव रहि चुकल छथि आ हिनक बहुत रास कविताक अनुवाद भारत आ वि”वक अनेक भा’ाा में भ चुकल अछि।

लघुकथा

1. प्रेम

बहुत दिन भ गेल, आब बियाह कय लिअय।

कियैक?- प्रेम कयल त बियाह करबै ने, कते दिन एहिना नुकाइत भेंट-घाट हैत;

नहि! कोनो जरूरी नहि।

त, प्रेम कियैक कयल ? प्रेमक अगला परिणति त बियाहे ने...

नहि; सबसं प्रसिद्ध प्रेम प्रसंग राधा-कृ"णक अछि। मुदा दूनू आपस मे बियाह नहि कयल। त हम कोना बाध्य भ सकैत छी ?


2. अपराध

सुनै छी, आब गामो मे मारि-फसाद हैत।

से कोना बुझलियै ?

थाना जे बनि गेल गाम मे।

3. पैघ लोक

विद्यालय मे अनौपचारिक गप्पक क्रम मे एकटा छात्र 'िाक्षक सं पूछलकैन्ह,मास्टर साहब, पैघ लोक कोना बनि सकैत छी?

मास्टर - पहिलुका मान्यता आ महान लोक कें खिदांस कय क।

छात्र - मतलब ?

मास्टर - भगवान आ धार्मिक मान्यता कें खिदांस कय क हरिमोहन बाबू पैघ लोक बनलाह आ ओहि क्रम मे खट्टर कक्का अमर भ गेलाह।

- सुभाष चन्द्र

नई दिल्ली, 9871846705

बुधवार, फ़रवरी 11

हम


हम

जे चली गेल रही

अप्पन जरि स दूर

घुरि रहल छि

पुनश्च

जरि दिस

अओर

अवाक् छि

ई देखि के

अहाँ


रूप धय लेने छि हमर

आब,

हम कोना ताकि स्वंय के ?
सुभाष चन्द्र

शनिवार, फ़रवरी 7

लघुकथा / आदर्श विवाह


’मुदा ई कि भेल ? सुनैत रही जे अहाँक सभ बात पक्का भ गेल अछि। तखन एना किएक ? ’

’हँ, बात त पक्के छल। मुदा दोख हमरे जे एते पैघ आदमीक बहुत छोट बात नहि बुझि सकलौंह ?’ हारल स्वर मे सरयू बाबू बजलाह।

’से की? अहाँक कथा त आदर्शे ठीक भेल छल की ने ? फेर कोन व्यवधान भ गेल? बरागत अपना बात सँ फिरी गेलाह की?’

नहि ओ सभ तक अपना बात सँ नहि मुकरलाह, हमही एतेक पैघ भार उठाबै मे असमर्थ रही।

आदर्श आ भार ? हम किछु बुझि नहि सकलौंह, कने फरिच्छा के कहूने?

आ की कहू? ओ लोकनि त देवता छथि । जतैक पैघ ओतबा उदार आ विनम्र। पुरान धनाढय। कोनो वस्तुक कमी छैन्ह, जे माँग लेताह ? तखन हमरे करम फूटल छल जे भगवान ओतेक सामर्थ नहि देलन्हि जे हुनकर देल सूचीक सभ सामान..... ।

एहि सं आगू नहि बाजि सकलाह सरयू बाबू। मुड़ी गोतने आगू बढि गेलाह, ’ शायद आदर्श ’शब्दक सही अर्थ ताकय।


- विपिन बादल

गुरुवार, फ़रवरी 5

कविता / भाग्य


पति कें गप्प नहि मानि

जतेक सुख करैत छथि

भवि’यक लेल ओतबे

दुःखक पहाड़ बनाबैत छथि

कखन धरि रहि सकैत छथि ओ

अपन नैहर मे,

बाप-भाय पर आश्रित भ क।

एक ने एक दिन हुनका आबय पड़तैन्ह

सासुरक चैखटि पर

अन्तकाल मुखाग्नि सेहो सासुरपक्ष सँ भेटतैन्ह

पति केँ तिरस्कार कय क

ओ कहियो नहि भ सकैत छथि सुखी

पायक बले किराया कें आदमी आनि सकैत छथि

मुदा पति नहि ?

ओहेन कमाई, कमाई किं

जाहि मे जिनगी गंवा दी

लक्ष्मी त चंचला छथि

आई नहि त काल्हि अएबै करतीह

मुदा,

जिनगीक ई पल नहि घुरत

जदि दू-चारि साल बाद घुरब

तहनो बहुत किछु नहि भेटत

पूरा जिनगी दरकि जाएत।

कतेक पढ़ल-लिखल मूर्ख अछि ओ

जे पति केँ भाग्य कें त कोसैत अछि

मुदा, अप्पन कें नहि?


सुभाष चन्द्र,

बुधवार, फ़रवरी 4

कविता / आशा

मानव-जीवनकेर प्रथम ज्योति
ओ बाल-रविक-स्वर्णिम प्रका’ा
अछि लुप्त भेल न’वर जग सँ
जागल अछि ग्रहण चास-बास
मधु-ऋतुक सुकोमल पल्लवकेँ
अछि तोड़ि दैत पछबा-बसात
तैँ कहू कोना संभव होएत
सुकुमार-भावनाकेर विकास
सागरक लहरिसन अछि उठैत
अभिलास मनहिमन नित-नवीन
संकट पहाड़केर ठोकर सँ
भ जाइछ ओ लगले विलीन
बिखरल जीवन-कणकेँ तैयो
दिन-राति संजोगि रहल छी
आशा-मरीचिका केर पाछाँ
जीवन मे दौड़ि रहल छी।

- प्रभा झा

कत जा रहल अछि मैथिल समाज

कोशिश अछि जे समर्पित प्रयास स अपन संस्कृति भाषा आ पहचान के बचा क राखि सकी । उम्मीद अछि जे एहि ब्लाग के माध्यम स बहुतो गोटे सब मिलि एहि हार्दिक मर्म के बिचारक माध्यम स व्यवहारिक रूप द सकी ।
मैथिल सभ आई सभ क्षेत्र में विकास क रहल छथि, मुदा मैथिल के इ उत्थान मिथिला लेल बरदान नही बनी ओकर अस्तित्व के पिछरापन के कारण बनि रहल अछि । जेना बुझा रहल अछि जे इ वर्ग पूर्वे स भाषा आ परम्परा के छोड़बा लेल प्रतिबद्ध रहैत छैथ ।
अपन बुद्धिजीवी पाठक सभ लग इ जतेबक कोनो प्रयोजन नहि जे सांस्कृतिक पहचान के की महत्त्व अछि । एकर अहमियत आओर आवश्यकता त ओहो बुझैत छैथ जे मैथिलक पहचान स शर्मिंदा रहैत छैथ , आ दोसरक भाषा, परम्परा आ रिवाज अपनेवाक लेल दर दर भटैक रहल छथि । सवाल उठानाइ त स्वभाविक अछि जे आख़िर ऐना कियक ?मैथिल अपन भाषा ,क्षेत्र ,संस्कृति स पलायन क रहल छथि । शहर के त बाते छोडू जत मैथिल अपन पहचान ऐना छुपबैत छैथ जेना कोनो कलंक । कमोबेश आब गाँवो के समाज पलायनवादी पथ पर आगा बढी रहल अछि । एहि तरहक वैचारिक छिछलापन स मैथिल संस्कृति आ भाषा पर गम्भीर खतरा देखा रहल अछि । आजुक परिदृश्य में ऐना बुझा रहल अछि जेना कोनो उजाही उठल अछि अपन भाषा आ संस्कृति की छोड़बा के लेल । अपन भाषा, क्षेत्र आ संस्कृति के पोषित करब सभक नैतिक दायित्व होइत अछि, जकर एहि समाज में नितांत कमी देखा रहल अछि । विकासक बुनियादी बात स अनजान लोक सभ भेड़ चाल में आगा बढ़ल जा रहल छथि । नकल हावी भ रहल अछि ,अपन संस्कृति परम्परा में बहरी संस्कार के घुसा अपना आप गौरान्वित महसूस क रहल छी । समय के संगे बदलाव हर समाज अओर संस्कृति के मांग होइत छैक । समयानुरूप ओही में परिवर्तन सेहो जरूरी होइत छैक । नवीनीकरण के सत्कार होयबाक चाही । अन्यथा जड़ता त मृत के निशानी होइत अछि । मुदा संस्कृति स पलायन करब कदापि उचित नहि मानल जा सकैत अछि । इ तंग मानसिकता समाज के पंगु बना देत । एहि पर गहन विचार आवश्यक अछि।

मंगलवार, फ़रवरी 3

कथा / खस्सी आ चिकबा

एकटा छागर छल, जकरा ’ाुरूए सँ चिकबा पोसि रहल छल। खूब नीक जकां रहैत छल छागर। चिकबा खूब धियान दैत छलै ओहि छागर पर। चिंतित रहैत छलै छागरक प्रति। छागर कतओ इम्हर-ओम्हर नहिं चलि जाय कतओ रस्ता नहिं बिसरि जाय, कतओ भुतला नहिं जाय। हरियर-हरियर घास, कटहरक हरियतर पात, रोटी.... सभ किछु खाय लेल दैत छलै छागर केँ। कहुना स्वस्थ रहय, इएह मं’ा रहैत छलैक। बीतैत समयक संग छागर खस्सीक रूप धारण कय रहल छल। समय बीतैत गेलै। आओर एकदिन एहन अयलै जखना चिकबा खस्सी केँ लय क बाहर गेल। खस्सी अपना कें सभ तरहें सुरक्षित मानि नि’िचंत भ जा रहल छल, चिकबा संगे। कारण, संग मे रखवारक छल। चिकबा। खस्सी के एहि बातक अवगति नहि छलै जे आबय बला पल केहल प्रलंयकारी हएत हमरा लेखे। ओ त सामने चिकबा केँ देखैत छल आ नि’िचंत छल।
चिकबा, जे छागर के पालि पोसि खस्सी बनोलक, खस्सी के अपनापन के एहसास करोलक। बच्चा सँ वयस्क बनय धरि ओकरा सिनेहक एहसास दियौलक, सदिखन ओकरा सुरक्षा देलक। आब खस्सी प्रति चिकबाक एतेह सिनेह कियैक रहय, ई त स्वयं चिकबे जाने।
ओ समय लगीच आबि गेलै जखन चिकबा स्वयं आ खस्सीक मध्य अन्तर स्पस्ट करैत अछि। चिकबा खस्सी कें बाजार मे बेचि दैत छैक। ओ खस्सी के पुचकारैत बड दुलार सँ अपना लग बजाबैत अछि। खस्सी आबि जाइत छैक। कारण ओ चिकबा लग अपना केँ पूर्ण सुरक्षित महसूस करैत छल। लगच अयला पर खस्सी के पकड़ैत छै; खस्सी ’ाांत, बिलकुल निस्तब्ध अछि। एकारा ओ सिनेहक एकटा रूप मानैत अछि। चिकबाक हाथ ओकरा पर धीरे-धीरे कसिया रहल छल। आ .... । कनी काल बाद ओ अपना केँ बान्हल पबैत अछि। एकटा खूँटा मे खँूटेसल। लाचार अछि, बेबस, अचंभित। खस्सी किछुओ नहि बुझि पाबि रहल छै। आखिर कियैक - ओकरा संगे एकहन व्यवहार, सेहो चिकबाक हाथे। कारण सोच सँ परे। एकसरि ठाढ़। असमंजस मे।
किछु पल आओर बीतला पर चिकबा अबैत अछि। हाथ मे कत्ता लेने। धरिगर आ भरिगर कत्ता। खस्सी के आब अनुमान लागि रहल छैक। ओ जोर सँ मिमिया रहल छै । छटपटा रहल छै। ओहिठाम चिकबा ’ाांत। बिलकुल ’ाांत। जेना किछुओ नव घटना होमय बला नहि होइहि। चिकबा कें ज्ञात छैक- आबय बला समय मे कि होमय जा रहल छै। कियैक भ रहल छै ? एकर उत्तरदायी ककरा पर, तइयो ’ाांत अछि। कोनो तिलमिलाहट नहि। आब, खस्सीक पछुलका दुनू पयर खींचल जा रहल छै। धड़ सीधा। कराहि रहल अछि खस्सी। ’ारापि रहल अछि चिकबा केँ। कनैत नहि अछि। कारण ओकर दम घूटि रहल छै। संास लेबा मे तकलीफ भ रहल छै। ऐना मे कानल कोना जेते? चिकबा आब निचैन भ कत्ता उठा कय ओकर गरिदन पर बजारि दैत छैक, गरिदन धड. सँ विलग। एकदम सँ अलग। चहुँदि’ा खूनक छींटा उड़ैत छैक। तइयो चिकबा ’ाांत; एकदम ’ाांत। जेना किछुओ भेलै नहि होइहि।

- अभिजात पंकज

कि कहू

समय के संग बदलैत
गामक परिदृ’य मे
क्षण प्रतिक्षण
घोसिया रहल अछि ‘ाहरीपन,
इंटा के घर मे लागल अछि
नव नव अंग्रेजीया सिस्टम,
समाजिक सौहार्दता स दूर
अछि अपना आप मे सब मग्न,
‘ाराब आ गाजा के संग
भ रहल अछि युवा मे नैतिक पतन,
मां बाप के छोडि
बेटी भागि रहल अछि प्रेमी के संग,
अपन सभ्यता आ संस्कृति के
हासिया पर राखि
सब बनि रहल अछि माॅडर्न
मुदा कहां पता जे
पुरा कपडा पहिरियो क
देखा रहल अछि नग्न,
गामक ई बदलैत स्वरूप देखि
सोचि रहल छी जे
पता नहि हम जीत रहल छी
वा हारि रहल छी ।।

अंकुर कुमार झा

मजबूरी

अन्हरिया फेर घेरलक आई
आबि गेल फेर नव प्रभात
एहि चिड़ै केँ किछु नहि बुझल
होएत कोन डारि पर बसेरा आई
चहुँओर घूमैत अछि करिया नाग
ताकू ओ
कतय अछि सपेरा आई
कतेक हरियर-भरल-पूरल
भ गेल अछि वन-झाँखुर
फूलक सुगंध सँ आई
एहि जगह त फूल खिलाइत छल
कोना कए एतय भेलै पतझड़क ठौर
होएत रक्षकक कोनो मजबूरी
जे बनि क आयल लूटेरा आई
सभ केँ छैन्हि तूफानक ख्याल
जाहि मे डूबल अछि ’ारीर आई।


सुभाष चन्द्र,

लघुकथा

’सभ सँ छोट लघुकथा की भ सकैत अछि ?’- एकटा साक्षात्कारमे वि’ोसज्ञ आवेदक सँ पूछलथिन।
’सभ किछु मरि गेल’ - आवेदक किछु सोचैत झटसँ उत्तर देलनि। आई व्याख्याता पदक लेल साक्षात्कार चलि रहल छलै।
’कोना - ई लघुकथा कोना भेल ? ’
’श्रीमान, एहि पाँतिमे अपने साहित्यक सभरस ताकि सकै छी एवं ई स्वयंमे पूर्ण अछि। ’
कि तावते वि’ोसज्ञकेँ एकटा फोन अबैत छनि। मोबाइल पर भेल वार्तालापक अर्थ आवेदक नीक जेकाँ बूझि गेल छला।
’हम नहि बूझि सकलहुँ। अहाँ एकरा विस्तार सँ बुझाउ ’ - वि’ोसज्ञक मुखमुद्रा बदलल छल जकरा आवेदक स्पस्ट अनुभव कयलनि।
’छोड़ू ने श्रीमान, यदि विस्तार सँ कहय लागब तँ ई दीर्घकथा भ जायत। ’
कहैत आवेदक ठाढ़ भ गेट खोलि बाहर निकलला। बाहर एखनो प्रत्या’ाीक भीड़ उमड़ले छल।

- सत्येन्द्र कुमार झा, आका’ावाणी दरभंगा

दुत्कार

अगहन मास के
कपकपैत ’िातलहरी मे
पुआरक टाल मे सुटकल
कैं कैं करैत, कुकुरक नवजात,
मनुक्खक बच्चा के
नव खिलौना
ककरो मोती, ककरो ‘ोरू त
ककरो मोना,
कहां सोचि पाबैत अछि
जे एही समाज मे
हमर हैत अवहेलना,
ओ अबोध, निर्बोध, स्वार्थहीन
कहां जानैत अछि
जे जेतअ सअ हमरा अछि
प्रेमक आ’ा
ओतहि काल्हि भेटत दुत्कार ।।

- अंकुर कुमार झा