भारतवर्ष मे गर्भाधान सँ लै मृत्युपर्यन्त संस्कार धर्मशास्त्रक अनुशासन द्वारा अनुशासित होइत अछि। किन्तु एहि मे विवाह अत्यधिक महत्वपूर्ण अछि। भारतवर्षक जे विवाह बंधन अछि से मात्र दैहिक संबंधहि सँ बांधित नहि अछि अपितु सर्वथा धर्मक ऊपर प्रतिष्ठिïत अछि। कोनहु स्थिति मे ई विवाह बंधन नर-नारीक विलास-व्यसन अथवा आमोद-प्रमोदक अंश नहि बूझल जा सकैत अछि। ऐहिलौकिक जीवनक कये कोन पारलौकिक कार्य मे सेहो यदि व्यक्ति पत्नीशून्य भऽ जाइत अछि तँ ओकर कोनो यज्ञादि अनुष्ठïान मे अधिकार नहि रहि जाइत छैक। फलत: भारतीय संस्कृति मे विवाह संबंध एक अच्छेद्य संबंध कहल जाइत अछि। विवाहक अवस्थाक संग अन्य कोनो संबंध नहि मानल गेल अछि। ई संबंध जन्म-जन्मांतर मे सेहो अटूट रहैत अछि। जीवित स्वामीक संतोषार्थ कतिपय स्थल मे कतेको रमणी लोकनि बहुत किछु कऽ सकैत छथि किन्तु स्वामीक परलोक गमनक बाद हुनक नामोच्चारण मे सेहो कृपणता आबि जाइत छनि। किन्तु मृत स्वामीक विस्मरणक तँ चर्चे नहि हुनका हेतु आश्चर्यजनक त्याग भारतवर्षहि मे संभव अछि। स्वार्थक वशीभूत भऽ ककरो लेल किछु करब एक साधारण विषय अछि। परन्तु भारतीय नारीक त्याग सतीदाह सँ प्रत्यक्ष भऽ उठैत अछि। यद्यपि किछु व्यक्ति फतिंगाक दीपक प्रेम मे जरि मरब सँ एकर तुलना कैलनि अछि किन्तु वास्तविकता एहि सँ बहुत फराक अछि। एहि विषय मे भारतीय कथनक अपेक्षा अन्य व्यक्तिक उद्ïगारहि विशेष संवाल हएत। पठानक शासनकाल मे गयासुद्दीन जखन दिल्लीक सिंहासन पर आरूढ़ छल ओही समय पारस मे 'अमीर खुशरूÓ नामक महाकविक दिल्ली दरबार मे आगमन भेल छलनि।
ई मुसलमान भेलहुँ पर अतिशय सहृदय छलाह। सव्रप्रथम सतीदाह देखिवाए वित्मयापन्न भऽ गेलाह। सतीदाहक कथा सुनतहिं ओ ओतए उपस्थित होइत छलाह एवं ओहि प्रसंग के देखिओ श्रद्धा सँ अवनत भऽ जाइत छलाह। ओ अनुभव करैत छलाह जे प्रेमक एवेक पैघ उदाहरण असंभव अछि। हुनक कहल छल जे प्रज्वलित अग्नि मे जरिकए भस्म होमए बला कीड़ाक अभाव नहि अछि मुदा मृत व्यक्तिक चिता पर जरिकए भस्म हएब सर्वथा भिन्न अछि। ताहिं कीड़ा फतिंगाक संग एकर तुलना सर्वथा अनुचित अछि। स्त्रीक लेल पतिक आग्रह योग्य वस्तु थीक किन्तु मृत स्वामीक लेल चिता पर अपन शरीरक त्याग करब सांस्कृतिक महान आदर्श थीक। कीड़ा-फतिंगाक लेल आग्रहक वस्तु दीपशिखा अछि। जरैत दीपशिखा मे पडि़कए कीड़ा-फतिंगाक अपन प्राण विसर्जन करैत अछि मुदा दीपशिखा मिझा गेला पर ई कीड़ा-फतिंगा ओकर समीप सेहो नहि जाइत अछि।
''निस्वत सती से नादो पतंग के तासे
इसमें और उसमें इलाका भी काठी
यह आग में जलती है मुर्दे के लिए
वह बुझी शमा के गिर्द फिरता भी नहीं॥ÓÓ
—अमीर खुसरो
एहि शब्द सँ एही ठामक वैवाहिक संबंधक उत्कर्ष ज्ञापित होइत अछि।
कतिपय गृह्यïसूत्र मे आरम्भ मे विवाहे संस्कार वर्णन भेटैत अछि। कारण गर्भाधान सँ लै जतेक प्रकार संस्कारक वर्णन उपलब्ध होइत अछि ओहि संस्कार सभक मूल आधार गार्हस्थ्य जीवनहि अछि। गार्हस्थ्य जीवनक प्रथम चरण विवाह संबंध थीक। वैदिक काल मे, जखन आजुक कतिपय संस्कारक चिह्नï मात्रो भेटैत अछि। वैदिक कालक ब्राह्मïणक लेल अपन पत्नीक संग मधुर कांत प्रेममय जीवन नितांत प्रिय छलन्हि। सामाजिक आवश्यकता केँ दृष्टिï मे राखि विवाह मात्र धार्मिक परम्पराक अभिन्न अंगेटा नहि अपितु अनिवार्य अंग एवं विशिष्टï कोटिक यज्ञ मे आबि गेल छल। विवाह हीन व्यक्ति यज्ञहीन व्यक्तिक कोटि मे परिगणित होइत छल। एतबए नहि विवाहक बिना मनुष्य अंगहीन बूझल जाइत छल। भगवान शंकर के आइयो हमरा लोकनि अर्धनारीश्वरक रूप मे अर्चना करैत छी।
तैत्तरीय ब्राह्मïण मे एहि बातक संकेत भेटैत अछि। ओतए कहल गेल अछि। जे एकाकी पुरुष अपूर्ण अछि तथा पत्नी ओकर अर्धभाग थीक। एहि तरहेँ विवाह केँ एतेक उच्चतम भूमि पर अवस्थित कयल गेल अछि जकर आधार पर मनुष्य मात्र यज्ञेक हेतु अधिकृत नहि होइत अछि अपितु अपन शरीरक आधा अंग केँ सेहो पूर्ण कऽ पबैत अछि। जतेक आघ्रम अछि ओहि सभ आघ्रमक आधार गृहस्थाश्रम मानल जाइत अछि। तीन ऋणक कल्पना कए ओहि तीनू सँ मुक्तिक लेल विवाह एक अपरिहार्य अंग रहि जाइत अछि। ओहि मे ब्रह्मïचर्यक द्वारा ऋषि ऋण सँ विमुक्ति, यज्ञक द्वारा देवऋण सँ एवं सन्ततिक द्वारा पितृऋण सँ विमुक्ति कहल गेल अछि। पितृ ऋण सँ विमुक्तिक लेल विवाह संस्कारक अतिरिक्त अन्य कोनो साधन निर्दिष्टï नहि अछि। स्मृतिकाल मे सँ वैवाहिक बंधन प्रत्येक व्यक्तिक लेल आवश्यक मानल जाइत छल। ब्रह्मïचर्य श्रमक बाद गृहस्थाश्रम मे प्रवेश नितांत आवश्यक छल। पुराणकाल मे तँ अनेक ऋषि लोकनिक कथा सभा एहि सत्यक साक्षीक रूप मे उपलब्ध होइत अछि।
मार्कण्डेय पुराण मे गार्हस्थ धर्मक प्रशंसा करैत मदालसा द्वारा कहल गेल अछि जे गृहस्थ धर्मक द्वारा अशेश जगतक पालन करवा मे मनुष्य सक्षम होइत अछि। पितर, मुनि, देवता, भूत, मनुष्य, कृमि, कीट, फतिंगा, पक्षी, पशु, असुर सभ गृहस्थ द्वारा उपजीवित होइत छथि तथा तृप्ति लाभ करैत छथि।
उपर्युक्त विश्लेषण सँ ई सिद्ध होइत अछि जे भारतीय संस्कृतिक अनुसार विवाह संस्कार एक एहन महत्वपूर्ण संसकार थीक जगर आधार पर त्याग ओ प्रेम वास्तविक स्वरूप उपस्थित होइत अछि। एहि ठामक विवाह संबंध कामना एवं भोग सँ ऊपर उठि त्याग सबल भित्ति पर अवस्थित अछि। नारीक पतिव्रत्य एवं मृत पतिक शवक संग अपन विसर्जन एक अनिर्वचनीय अविच्छन्न प्रेम धाराक ज्वलन्त उदाहरण अछि।
स्मृति आदि मे विवाहक भेदक निरूपण करैत आठ प्रकारक विवाहक स्वीकृति देल गेल अछि। किन्तु उत्कर्षापकर्षक आधार पर दू प्रकारक विवाहक कतोक स्थान मे समर्थन उपलब्ध होइत अछि। उक्त प्रकार केँ दू भाग मे विभक्त कएल गेल एक प्रशस्त एवं दोसर अप्रशस्त। प्रथम चारि प्रशस्त एवं अपर चारि अप्रशस्त। राक्षस एवं पैशाच तँ कोनहुँ प्रकारे वैध नहि मानल गेल अछि। मनुस्मृति मे पैशाच विवाह कन्या पर छल कपटक द्वारा अधिकार प्राप्त करैत छल। सुप्त, मत एवं अचेतन अवस्था मे कन्याक हरण पैशाच विवाह कहल जाइत अछि। वस्तुत: ई विवाह उच्छृंखलता एवं असभ्यताक प्रतीक थीक।
द्वितीय विवाह राक्षस विवाह थीक। ई सेहो कनैत कलपैत कन्याक ओकर परिवार केँ क्षत-विक्षत कए बलपूर्वक हरण राक्षस विवाह थीक। दुनू विवाह मे कन्याक अथवा ओकर अभिभावकक स्वीकृति नहि रहैत अछि। एक मानवक लेल राक्षसी एवं पैशाची वृत्ति जहिना हेय अछि तहिना ओहि संस्कृतिक प्रतीक ई विवाह सेहो हेय थीक। दोसर शब्द मे युद्धक द्वारा पराजित राजाक वस्तुजातक सदृश स्त्री लोकनिक उपलब्धि कहल जा सकैत अछि। यद्यपि ई दुनू विवाह परम्परा महाभारत एवं पुराण सँ प्रमाणित अछि। बल एवं पराक्रमक प्रदर्शन कए कन्याक हरण भीष्म काशी राजक तीनू कन्याक कैलनि छल। किन्तु एतवा सत्य थीक जे ओहि हरणक बाद सेहो मानवताक अथवा भारतीय संस्कृति मूलाधार मे कुठाराघात नहि कैलनि। ओहि अपहरित कन्या सभक इच्छाक अनुरूपहि विवाह कैल गेल। तेसर कन्याक अनुरूप वरक प्राप्ति नहि होएबाक कतेक दारुण परिणाम भेल से ऐतिहासिक प्राचीन भारतीय इतिहासक अनुशीलन सँ हमरा लोकनि केँ विदित होइत अछि। भीष्म केँ एहि औद्धत्यक लेल अपन गुरु परशुरामक संग सेहो युद्ध करए पड़लनि। एतबए नहि वैह कन्या शिखण्डीक रूप मे एहि वीरक अंतिम लीलाक साक्षी सेहो बनलीह। तहिना परवत्र्ती काल मे संयुक्ताक पृथ्वीराजक द्वारा हरण वर्णित भेटैत अछि किन्तु ई कन्याक इच्छाक विरुद्ध नहि छल।
गंधर्व विवाह मे माता-पिताक इच्छा गौण रहैत छलनि तथा वर-कन्याक इच्छाक प्रधानता रहैछ। कन्या स्वयं अपन पतिक चयन करैत छलीहन करैत छलीह यैह गौतम एवं हारितक अनुसार गांधर्व विवाह थीक। किन्तु मनु एकरा कामनाक वशीभूत भए कन्या एवं वरक परस्पर संयोग कहलनि अछि। ई विवाह अतिशय प्रशस्त मानल गेल अछि। शकुंतला तथा दुष्यंतक विवाह तथा एही प्रकारक अन्य विवाह जे स्वयंवरक आधार पर होइत छल सेहो एहि कोटि मे अबैत छल। सूक्ष्म दृष्टिï सँ विचार कयला पर महाकवि कालिदास आदिक दृष्टिï मे ई विवाह अतिशय प्रशस्त नहि छल। कामनाक प्रबलताक कारणेँ स्वेच्छाचारिताक प्रतीक भए हानिक भूमि सैह बनि जाइत अछि। महाकविक दृष्टिï मे विवाहक पूर्व तपस्या अथवा त्याग नितांत अपेक्षित छल। काम दहनक बादेक विवाह कामतृप्तिक साधन होइत छल तथा अर्धनारीश्वरक रूप धारण कऽ सकैत छल। शकुंतला अनयासहि दुष्यंतक वरण कयलनि, बाद मे अतिशय दु:ख भोगि कऽ पुन: तपस्याक द्वारा पवित्र भए तखन दुष्यंत केँ प्राप्त कैलनि। पार्वती तपस्याक बादे शिवक प्राप्ति कैलनि तँ ओ प्रेम अक्षुण्ण बनल रहल। एहि तरहेँ पुराणक गाथ सभ मे गांधर्व विवाहक अतिशय प्रचलन भेलहु पर त्यागक आवश्यकता पर जोड़ देल गेल अछि।
चतुर्थ विवाह आसुरक विवाह थीक। एहि विवाह मे धनक प्रधानता रहैत छल। कन्याक संबंधी सभ केँ धन प्रदान कए स्वच्छंदतापूर्वक विवाह करब आसुर विवाह थीक। महाभारत मे कुरु राजकुमार लोकनिक लेल क्रय द्वारा पत्नी सभ केँ प्राप्त कैल गेल छल। मैत्रायणी संहिताक अनुसार क्रीता पत्नी अविश्वसनीय मानल गेल अछि।
पंचम विवाह प्रजापत्य थीक। ई विवाह धार्मिक एवं सामाजिक कत्र्तव्य सभक पालन केँ प्रधान बनाय पिता कन्याक पाणिग्रहण योगय वरक संग करैत छलाह। एहि विवाह मे धर्माचरणक उपदेश देल जाइत छल।
षष्ठï विवाह अछि थीक। एहि विवाह मे कन्या द्वारा वर सँ यज्ञादि धर्म विहित कर्म केँ सम्पन्न करबाक हेतु एक अथवा दू गोमिथुन प्राप्त करैत छलाह। एहि विवाह मे सेहो गायक ग्रहण आवश्यक छल किन्तु ओ गाय पुन: वर केँ दऽ देल जाइत छल। अत: ई कन्याक मूल्य नहि कहल जा सकैत अछि। वीर मित्रोदय मे एहि विवाहक वर्णन करैत यैह निर्दिष्टï कैल गेल अछि जे एहि विवाहकक क्रम मे कन्या पक्ष केँ प्राप्त गोमिथुन पुन: समर्पित कैल जाइत छल। अत: एहि विवाह मे मूल्यक कोनो प्रश्न नहि उठैत अछि।
सप्तम विवाह दैव विवाह एवं अष्टïम विवाह ब्राह्मïविवाह थीक। ब्राह्मï विवाह मे पिता विद्वान्ï तथा शील सम्पन्न वर केँ स्वयं आमंत्रित कए विधिवत्ï सत्कार पूर्वक दक्षिणाक संग यथाशक्ति आभूषणादि सँ अलंकृत कए कन्याक दान करैत छलाह। ऋग्वेद मे वर्णित सोमक संग सूर्याक विवाह पूर्व उदाहरण रूप मे स्वीकार कैल जा सकैत अछि। आइ एहि विवाहक विकृत रूप समाज मे प्रचलित अछि जाहि मे अर्थ केँ प्रधान राखि निन्दनीय टका गनैबाक प्रथा प्रचलित अछि। दैव विवाह मे पिता अलंकृत कन्या केँ आरब्ध यज्ञ मे पौरोहित्य कार्य सम्पादन कैनिहार ऋत्विज केँ दैत छल। बौधायनक अनुसार कन्या दक्षिणाक रूप मे देल जाइत छल। दैव यज्ञक अवसर पर कन्याक दान लेल सँ दैव विवाह कहल जाइत अछि।
पुराण युग में एवं संस्कृत साहित्यक काव्य परंपराक मध्य युग मे अंतर्जातीय विवाहक प्रचलन छल। कविवर राजशेखरक पत्नी कवियत्री अवन्तिसुंदरी क्षत्रिय कन्या छलीह। राजतरंगिनी मे एक तरहेँ कतेको उदाहरण उपलब्ध होइत अछि किन्तु परवर्ती काल मे अंतर्जातीय विवाह प्राय: अस्वीकृतहि मानल गेल अछि। आइ सेहो वर एवं वधूक योगयता तथा कुल आदिक परीक्षण कए विवाह यज्ञ सम्पन्न कैल जाइत अछि। एहि यज्ञ मे गणित विद्या विशारदक अनुसार शुभ मुहुत्र्त स्थिर कए देव देवीक आराधनक बाद पिता वरक हाथ मे कन्याक दान करैत छथि। परंपरानुसार कतिपय विधि-विधानक निर्वाह तथा मंगलाचार होइत अछि। विवाह कालक उक्ति सँ ई संबंध वर एवं वधूक जीवन मे एक बड़ पैघ सामाजिक संक्रमणक प्रतीक थीक। विवाह संबंध भोग-विलासक अथवा असंयत जीवनक एक मार्ग नहि अपितु जीवन मे एक महत्ï उत्तरदायित्वक वहन करब थीक। 'मंडपÓ आदि शब्द केँ देखला सँ एवं ओकर निर्माण मे कतिपय व्यक्तिक सहयोगक उपलब्धि सँ एहन-सन प्रतीत होइत अछि जे समाज मे समर्थ व्यक्ति सभक द्वारा एक गृह निर्माण पूर्वक वर-वधु केँ गाहर्यस्थक जीवन मे प्रवेश कराए कत्र्तव्यक भार वहनक लेल प्रेरित कएल जाइत छल। ओ लोकनि गार्हस्थय जीवन मे प्रवेश कए पितृ ऋणक संग-संग आनो कतेको ऋण सँ उद्धार प्राप्त करैत छलाह। प्राचीन कुल केँ छोडि़ कऽ आएल नववधू अपन त्याग एवं कुलीनता सँ ओहि घर पर अधिकार प्राप्त करैत छलीह तथा सभ कार्य मे सहधर्मिणीक स्वरूप निर्वाह करैत छलीह। अत: भारतीय संस्कृति मे विवाह यज्ञ अतिशय पवित्र तथा त्यागक आधारशिला थीक।
(लेखक डा. लक्ष्मण चौधरी 'ललितÓ , ललित नारायण मिथिला विश्विद्यालय दरभंगा मे मैथिली विभागाध्यक्ष रहि चुकल छथि।)