बुधवार, जनवरी 27

तिलक : जन्मसिद्ध अधिकार वा विकासक अवरोधक?

तिलक 'सोशल स्टेटसÓ आ सामाजिक प्रतिष्ठïाक विषय बनि गेल अछि। सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त छैक एकरा। जे परिवार तिलक नहि लऽ 'आदर्शÓ प्रतिमान स्थापित करैत छथि, हुनका प्रति बहुत रास संशय व्यक्त कएल जायत अछि। सच पुछू तऽ दहेजक के जन्मसिद्ध अधिकारक रूप मे महिमामंडित कएल जा रहल अछि। मुदा तिलक के जन्मसिद्ध अधिकार मानय बला कहियो ई सोचला जे ई प्रथा क्षेत्रीय आ सामाजिक विकास केर कतेक पैघ अवरोधक अछि?
मिथिला मे तिलक बरयाति आ कन्याक द्विरागमन धरि करोड़ो रुपया बह देल जायत अछि। सामथ्र्यवान जतए 40-50 लाख तक एहि नाम पर खर्च करैत छथि ओतए सामथ्र्यहीनो खेत-डीह बेचकेँ खर्च करैत छथि। कखनो सोचल अछि जे यदि रुपयाक सदुपयोग होयत तऽ एत्तेक राशि सँ कोन-कोन प्रयोजन पूर्ण कएल जा सकैत अछि। नि:संदेह बियाहो प्रयोजने ठीक मुदा आडंबरपूर्ण दिखाबा मे जेना कैंचा लुटाएल अछि की ओ उचित वा मानवीय जा रहल अछि? सामाजिक, पारिवारिक आ क्षेत्रीय विकास लेल सार्थक विकल्प ताकबाक आवश्यकता अछि। ई 'अर्थयुगÓ छैक तैं अर्थक अनादर करब विकासक लेल 'अनर्थÓ साबित होयत।
मिथिला मे तिलक प्रथा ब्राह्मïण परिवार मे सबसँ बेसी अछि मुदा आनो जाति मे आब ई सामाजिक प्रतिष्ठïाक विषय बनि रहल अछि। कन्यागत यदि प्रत्यक्षत: खर्च करैत छथि तऽ वरागत सेहो प्रतिष्ठïा अनुरूप खर्च करैत छथि आ ओ पाई हुनको लऽग बचि पबैत छन्हि। कखनो सोचल गेल जे अंतत: ओ पैसा कत्तऽ जाइत अछि, ककरा हाथ मे? एहि बंदरबांट मे के बनैत छथि लाभार्थी? आवश्यकता अछि सजग होयबाक आ नवयुवक-युवतीक केर लगाम अपना हाथ मे लेबाक। तिलक रोकबाक गंभीर आ यथार्थपरक आंदोलनक आवश्यक छै। मुदा के आंगा बढ़त?
मैथिल समाज जाति आ उपजाति मे बंटल छथि। श्रेष्ठï भाव सँ ओत-प्रोत? ई श्रेष्ठïताभाव आ जाति, उपजाति मे बंटल वर्ग समाजक कतेक अहित करैत अछि, इहो सोचनीय अछि। तिलक प्रथाक खात्माक लेल एकरो तोड़ब आवश्यक अछि।
बिना माइंजन आ देवानक जाति ब्राह्मïण अपन आपसी अंतरक संघर्ष मे तेना ओझराएल छथि की सामाजिक विकास मे बड़का अवरोधक होइत रहलाह। अगर एकर व्यावहारिकता के वियाह के रूप मे देखल जाय त किछु मामिला साफ बूझबा जैत।
जाति के संग-संग उपजाति तकरबाद फेर की हैत? उपजाति के सेहो तोड़ी क सह उपजाति बनत? अहि मे दोषी के अछि अई सवाल पर हमरा जनतबे अखन तक सोचल नहि गेल आ फोरवाड के नाम पर शनै:शनै: बेकवाड भेल जा रहल छी। यदि हम मिथिलाक किछु दोसर जाति के उदाहरण लेल जाय तँ यादव जाति मे 1964 सँ दहेज खतम भÓ गेलइ, कारण जे सब गामक माइंजन देवान एकटा बैसार सुंदर विराजीत गाम मे केलन्हि आ फैसला केलन्हि जे एकावन टा टका लऽ वरक दुआरि पर जैब जँ मंजूर होनि त ठीक नहि त ओहि परिवार के समाज मे बाडि़ देबनि। सहजहि दहेज के नामोनिशान नहि रहल।
एहने सन फैसला मिथिलाक कर्ण कायस्थ सेहो लेलन्हि मुदा कर्ण कायस्थ सब सेहो मैथिल ब्राह्मïण जेका अपना के उपजाति मे बांटी चुकल छथि। लेकिन बत्तीस गामक कर्ण कायस्थ श्रोतिय ब्राह्मïण जेका अपनाकेँ उच्च कुलशील क मानी कर्ण कायस्थ के दु उपजाति मे बांटी देलनि बत्तीस गामक भीतर आ बत्तीस गामक बाहर। जाति के फराक फराक उपजाति मे बांटला सँ नोकसान जे परिलक्षित होइत अछि ताहि मे बियाह दान पहिल संकट अछि। बत्तीस गामक भीतर दहेज के प्रचलन नहि अछि आ एकटा नीक वर (आइएएस, आइपीएस सनक वर) के गरीब घर मे एतऽ तक की निरक्षर कनिया सँ वियाहि देल जाइत अछि। ओ अफसर महोदय अपना हिसाबे अपन कनिया के तैयार कÓ लैत छथि। दोसर दिस जखने बत्तीस गाम सँ बहार भेलऊँ की मुश्किले-मुश्किल। कन्यागत अपन स्तर के वर तकबा लेल फिरिसान छथि। यथासाध्य डीह डाबर भरना या बेच कÓ बेटी के सुखी जीवन मुहैय्या करा रहल छथि।
बत्तीस गामक भीतर कतहु-कतहु कन्यागतो मजगूत रहैत छथि। वरक भाग खुलि जाइत छनि। कमो पढ़ला-लिखला उत्तर ससुर या सासू कृपा सँ ढंगगर नौकरी भेटि जाइ छनि आ सुखी जीवनक अभिलाषा पूरा भÓ जाइत छन्हि। सामान्यतया वियाहक नाम पर जे सौदेबाजी पसरल अछि ताहि सँ वंचित रहि जाइत छथि। जे कतहु ने कतहु समाज के सकारात्मक दिशा दैत अछि।
मैथिल ब्राह्मïण आ कर्ण कायस्थ ई दुनू जाति अपन उपजाति के खतम कÓकÓ शर्तिया दहेज के घिसियाकेँ कमला, कोशी आ बागमती के बाढि़ मे भसिया सकैत छथि आ समाज मे नव उदाहरण तथा सकारात्मक दृष्टिï के पसारइ मे एक डेग उठा सकैत छथि। ई नि:संदेह एकटा घृणित प्रतीक दहेज के और पैसार सँ रोकी सकैत अछि।

गुरुवार, जनवरी 14

भारतीय संस्कृति मे बियाह

भारतवर्ष मे गर्भाधान सँ लै मृत्युपर्यन्त संस्कार धर्मशास्त्रक अनुशासन द्वारा अनुशासित होइत अछि। किन्तु एहि मे विवाह अत्यधिक महत्वपूर्ण अछि। भारतवर्षक जे विवाह बंधन अछि से मात्र दैहिक संबंधहि सँ बांधित नहि अछि अपितु सर्वथा धर्मक ऊपर प्रतिष्ठिïत अछि। कोनहु स्थिति मे ई विवाह बंधन नर-नारीक विलास-व्यसन अथवा आमोद-प्रमोदक अंश नहि बूझल जा सकैत अछि। ऐहिलौकिक जीवनक कये कोन पारलौकिक कार्य मे सेहो यदि व्यक्ति पत्नीशून्य भऽ जाइत अछि तँ ओकर कोनो यज्ञादि अनुष्ठïान मे अधिकार नहि रहि जाइत छैक। फलत: भारतीय संस्कृति मे विवाह संबंध एक अच्छेद्य संबंध कहल जाइत अछि। विवाहक अवस्थाक संग अन्य कोनो संबंध नहि मानल गेल अछि। ई संबंध जन्म-जन्मांतर मे सेहो अटूट रहैत अछि। जीवित स्वामीक संतोषार्थ कतिपय स्थल मे कतेको रमणी लोकनि बहुत किछु कऽ सकैत छथि किन्तु स्वामीक परलोक गमनक बाद हुनक नामोच्चारण मे सेहो कृपणता आबि जाइत छनि। किन्तु मृत स्वामीक विस्मरणक तँ चर्चे नहि हुनका हेतु आश्चर्यजनक त्याग भारतवर्षहि मे संभव अछि। स्वार्थक वशीभूत भऽ ककरो लेल किछु करब एक साधारण विषय अछि। परन्तु भारतीय नारीक त्याग सतीदाह सँ प्रत्यक्ष भऽ उठैत अछि। यद्यपि किछु व्यक्ति फतिंगाक दीपक प्रेम मे जरि मरब सँ एकर तुलना कैलनि अछि किन्तु वास्तविकता एहि सँ बहुत फराक अछि। एहि विषय मे भारतीय कथनक अपेक्षा अन्य व्यक्तिक उद्ïगारहि विशेष संवाल हएत। पठानक शासनकाल मे गयासुद्दीन जखन दिल्लीक सिंहासन पर आरूढ़ छल ओही समय पारस मे 'अमीर खुशरूÓ नामक महाकविक दिल्ली दरबार मे आगमन भेल छलनि।
ई मुसलमान भेलहुँ पर अतिशय सहृदय छलाह। सव्रप्रथम सतीदाह देखिवाए वित्मयापन्न भऽ गेलाह। सतीदाहक कथा सुनतहिं ओ ओतए उपस्थित होइत छलाह एवं ओहि प्रसंग के देखिओ श्रद्धा सँ अवनत भऽ जाइत छलाह। ओ अनुभव करैत छलाह जे प्रेमक एवेक पैघ उदाहरण असंभव अछि। हुनक कहल छल जे प्रज्वलित अग्नि मे जरिकए भस्म होमए बला कीड़ाक अभाव नहि अछि मुदा मृत व्यक्तिक चिता पर जरिकए भस्म हएब सर्वथा भिन्न अछि। ताहिं कीड़ा फतिंगाक संग एकर तुलना सर्वथा अनुचित अछि। स्त्रीक लेल पतिक आग्रह योग्य वस्तु थीक किन्तु मृत स्वामीक लेल चिता पर अपन शरीरक त्याग करब सांस्कृतिक महान आदर्श थीक। कीड़ा-फतिंगाक लेल आग्रहक वस्तु दीपशिखा अछि। जरैत दीपशिखा मे पडि़कए कीड़ा-फतिंगाक अपन प्राण विसर्जन करैत अछि मुदा दीपशिखा मिझा गेला पर ई कीड़ा-फतिंगा ओकर समीप सेहो नहि जाइत अछि।

''निस्वत सती से नादो पतंग के तासे
इसमें और उसमें इलाका भी काठी
यह आग में जलती है मुर्दे के लिए
वह बुझी शमा के गिर्द फिरता भी नहीं॥ÓÓ
—अमीर खुसरो

एहि शब्द सँ एही ठामक वैवाहिक संबंधक उत्कर्ष ज्ञापित होइत अछि।
कतिपय गृह्यïसूत्र मे आरम्भ मे विवाहे संस्कार वर्णन भेटैत अछि। कारण गर्भाधान सँ लै जतेक प्रकार संस्कारक वर्णन उपलब्ध होइत अछि ओहि संस्कार सभक मूल आधार गार्हस्थ्य जीवनहि अछि। गार्हस्थ्य जीवनक प्रथम चरण विवाह संबंध थीक। वैदिक काल मे, जखन आजुक कतिपय संस्कारक चिह्नï मात्रो भेटैत अछि। वैदिक कालक ब्राह्मïणक लेल अपन पत्नीक संग मधुर कांत प्रेममय जीवन नितांत प्रिय छलन्हि। सामाजिक आवश्यकता केँ दृष्टिï मे राखि विवाह मात्र धार्मिक परम्पराक अभिन्न अंगेटा नहि अपितु अनिवार्य अंग एवं विशिष्टï कोटिक यज्ञ मे आबि गेल छल। विवाह हीन व्यक्ति यज्ञहीन व्यक्तिक कोटि मे परिगणित होइत छल। एतबए नहि विवाहक बिना मनुष्य अंगहीन बूझल जाइत छल। भगवान शंकर के आइयो हमरा लोकनि अर्धनारीश्वरक रूप मे अर्चना करैत छी।
तैत्तरीय ब्राह्मïण मे एहि बातक संकेत भेटैत अछि। ओतए कहल गेल अछि। जे एकाकी पुरुष अपूर्ण अछि तथा पत्नी ओकर अर्धभाग थीक। एहि तरहेँ विवाह केँ एतेक उच्चतम भूमि पर अवस्थित कयल गेल अछि जकर आधार पर मनुष्य मात्र यज्ञेक हेतु अधिकृत नहि होइत अछि अपितु अपन शरीरक आधा अंग केँ सेहो पूर्ण कऽ पबैत अछि। जतेक आघ्रम अछि ओहि सभ आघ्रमक आधार गृहस्थाश्रम मानल जाइत अछि। तीन ऋणक कल्पना कए ओहि तीनू सँ मुक्तिक लेल विवाह एक अपरिहार्य अंग रहि जाइत अछि। ओहि मे ब्रह्मïचर्यक द्वारा ऋषि ऋण सँ विमुक्ति, यज्ञक द्वारा देवऋण सँ एवं सन्ततिक द्वारा पितृऋण सँ विमुक्ति कहल गेल अछि। पितृ ऋण सँ विमुक्तिक लेल विवाह संस्कारक अतिरिक्त अन्य कोनो साधन निर्दिष्टï नहि अछि। स्मृतिकाल मे सँ वैवाहिक बंधन प्रत्येक व्यक्तिक लेल आवश्यक मानल जाइत छल। ब्रह्मïचर्य श्रमक बाद गृहस्थाश्रम मे प्रवेश नितांत आवश्यक छल। पुराणकाल मे तँ अनेक ऋषि लोकनिक कथा सभा एहि सत्यक साक्षीक रूप मे उपलब्ध होइत अछि।
मार्कण्डेय पुराण मे गार्हस्थ धर्मक प्रशंसा करैत मदालसा द्वारा कहल गेल अछि जे गृहस्थ धर्मक द्वारा अशेश जगतक पालन करवा मे मनुष्य सक्षम होइत अछि। पितर, मुनि, देवता, भूत, मनुष्य, कृमि, कीट, फतिंगा, पक्षी, पशु, असुर सभ गृहस्थ द्वारा उपजीवित होइत छथि तथा तृप्ति लाभ करैत छथि।
उपर्युक्त विश्लेषण सँ ई सिद्ध होइत अछि जे भारतीय संस्कृतिक अनुसार विवाह संस्कार एक एहन महत्वपूर्ण संसकार थीक जगर आधार पर त्याग ओ प्रेम वास्तविक स्वरूप उपस्थित होइत अछि। एहि ठामक विवाह संबंध कामना एवं भोग सँ ऊपर उठि त्याग सबल भित्ति पर अवस्थित अछि। नारीक पतिव्रत्य एवं मृत पतिक शवक संग अपन विसर्जन एक अनिर्वचनीय अविच्छन्न प्रेम धाराक ज्वलन्त उदाहरण अछि।
स्मृति आदि मे विवाहक भेदक निरूपण करैत आठ प्रकारक विवाहक स्वीकृति देल गेल अछि। किन्तु उत्कर्षापकर्षक आधार पर दू प्रकारक विवाहक कतोक स्थान मे समर्थन उपलब्ध होइत अछि। उक्त प्रकार केँ दू भाग मे विभक्त कएल गेल एक प्रशस्त एवं दोसर अप्रशस्त। प्रथम चारि प्रशस्त एवं अपर चारि अप्रशस्त। राक्षस एवं पैशाच तँ कोनहुँ प्रकारे वैध नहि मानल गेल अछि। मनुस्मृति मे पैशाच विवाह कन्या पर छल कपटक द्वारा अधिकार प्राप्त करैत छल। सुप्त, मत एवं अचेतन अवस्था मे कन्याक हरण पैशाच विवाह कहल जाइत अछि। वस्तुत: ई विवाह उच्छृंखलता एवं असभ्यताक प्रतीक थीक।
द्वितीय विवाह राक्षस विवाह थीक। ई सेहो कनैत कलपैत कन्याक ओकर परिवार केँ क्षत-विक्षत कए बलपूर्वक हरण राक्षस विवाह थीक। दुनू विवाह मे कन्याक अथवा ओकर अभिभावकक स्वीकृति नहि रहैत अछि। एक मानवक लेल राक्षसी एवं पैशाची वृत्ति जहिना हेय अछि तहिना ओहि संस्कृतिक प्रतीक ई विवाह सेहो हेय थीक। दोसर शब्द मे युद्धक द्वारा पराजित राजाक वस्तुजातक सदृश स्त्री लोकनिक उपलब्धि कहल जा सकैत अछि। यद्यपि ई दुनू विवाह परम्परा महाभारत एवं पुराण सँ प्रमाणित अछि। बल एवं पराक्रमक प्रदर्शन कए कन्याक हरण भीष्म काशी राजक तीनू कन्याक कैलनि छल। किन्तु एतवा सत्य थीक जे ओहि हरणक बाद सेहो मानवताक अथवा भारतीय संस्कृति मूलाधार मे कुठाराघात नहि कैलनि। ओहि अपहरित कन्या सभक इच्छाक अनुरूपहि विवाह कैल गेल। तेसर कन्याक अनुरूप वरक प्राप्ति नहि होएबाक कतेक दारुण परिणाम भेल से ऐतिहासिक प्राचीन भारतीय इतिहासक अनुशीलन सँ हमरा लोकनि केँ विदित होइत अछि। भीष्म केँ एहि औद्धत्यक लेल अपन गुरु परशुरामक संग सेहो युद्ध करए पड़लनि। एतबए नहि वैह कन्या शिखण्डीक रूप मे एहि वीरक अंतिम लीलाक साक्षी सेहो बनलीह। तहिना परवत्र्ती काल मे संयुक्ताक पृथ्वीराजक द्वारा हरण वर्णित भेटैत अछि किन्तु ई कन्याक इच्छाक विरुद्ध नहि छल।
गंधर्व विवाह मे माता-पिताक इच्छा गौण रहैत छलनि तथा वर-कन्याक इच्छाक प्रधानता रहैछ। कन्या स्वयं अपन पतिक चयन करैत छलीहन करैत छलीह यैह गौतम एवं हारितक अनुसार गांधर्व विवाह थीक। किन्तु मनु एकरा कामनाक वशीभूत भए कन्या एवं वरक परस्पर संयोग कहलनि अछि। ई विवाह अतिशय प्रशस्त मानल गेल अछि। शकुंतला तथा दुष्यंतक विवाह तथा एही प्रकारक अन्य विवाह जे स्वयंवरक आधार पर होइत छल सेहो एहि कोटि मे अबैत छल। सूक्ष्म दृष्टिï सँ विचार कयला पर महाकवि कालिदास आदिक दृष्टिï मे ई विवाह अतिशय प्रशस्त नहि छल। कामनाक प्रबलताक कारणेँ स्वेच्छाचारिताक प्रतीक भए हानिक भूमि सैह बनि जाइत अछि। महाकविक दृष्टिï मे विवाहक पूर्व तपस्या अथवा त्याग नितांत अपेक्षित छल। काम दहनक बादेक विवाह कामतृप्तिक साधन होइत छल तथा अर्धनारीश्वरक रूप धारण कऽ सकैत छल। शकुंतला अनयासहि दुष्यंतक वरण कयलनि, बाद मे अतिशय दु:ख भोगि कऽ पुन: तपस्याक द्वारा पवित्र भए तखन दुष्यंत केँ प्राप्त कैलनि। पार्वती तपस्याक बादे शिवक प्राप्ति कैलनि तँ ओ प्रेम अक्षुण्ण बनल रहल। एहि तरहेँ पुराणक गाथ सभ मे गांधर्व विवाहक अतिशय प्रचलन भेलहु पर त्यागक आवश्यकता पर जोड़ देल गेल अछि।
चतुर्थ विवाह आसुरक विवाह थीक। एहि विवाह मे धनक प्रधानता रहैत छल। कन्याक संबंधी सभ केँ धन प्रदान कए स्वच्छंदतापूर्वक विवाह करब आसुर विवाह थीक। महाभारत मे कुरु राजकुमार लोकनिक लेल क्रय द्वारा पत्नी सभ केँ प्राप्त कैल गेल छल। मैत्रायणी संहिताक अनुसार क्रीता पत्नी अविश्वसनीय मानल गेल अछि।
पंचम विवाह प्रजापत्य थीक। ई विवाह धार्मिक एवं सामाजिक कत्र्तव्य सभक पालन केँ प्रधान बनाय पिता कन्याक पाणिग्रहण योगय वरक संग करैत छलाह। एहि विवाह मे धर्माचरणक उपदेश देल जाइत छल।
षष्ठï विवाह अछि थीक। एहि विवाह मे कन्या द्वारा वर सँ यज्ञादि धर्म विहित कर्म केँ सम्पन्न करबाक हेतु एक अथवा दू गोमिथुन प्राप्त करैत छलाह। एहि विवाह मे सेहो गायक ग्रहण आवश्यक छल किन्तु ओ गाय पुन: वर केँ दऽ देल जाइत छल। अत: ई कन्याक मूल्य नहि कहल जा सकैत अछि। वीर मित्रोदय मे एहि विवाहक वर्णन करैत यैह निर्दिष्टï कैल गेल अछि जे एहि विवाहकक क्रम मे कन्या पक्ष केँ प्राप्त गोमिथुन पुन: समर्पित कैल जाइत छल। अत: एहि विवाह मे मूल्यक कोनो प्रश्न नहि उठैत अछि।
सप्तम विवाह दैव विवाह एवं अष्टïम विवाह ब्राह्मïविवाह थीक। ब्राह्मï विवाह मे पिता विद्वान्ï तथा शील सम्पन्न वर केँ स्वयं आमंत्रित कए विधिवत्ï सत्कार पूर्वक दक्षिणाक संग यथाशक्ति आभूषणादि सँ अलंकृत कए कन्याक दान करैत छलाह। ऋग्वेद मे वर्णित सोमक संग सूर्याक विवाह पूर्व उदाहरण रूप मे स्वीकार कैल जा सकैत अछि। आइ एहि विवाहक विकृत रूप समाज मे प्रचलित अछि जाहि मे अर्थ केँ प्रधान राखि निन्दनीय टका गनैबाक प्रथा प्रचलित अछि। दैव विवाह मे पिता अलंकृत कन्या केँ आरब्ध यज्ञ मे पौरोहित्य कार्य सम्पादन कैनिहार ऋत्विज केँ दैत छल। बौधायनक अनुसार कन्या दक्षिणाक रूप मे देल जाइत छल। दैव यज्ञक अवसर पर कन्याक दान लेल सँ दैव विवाह कहल जाइत अछि।
पुराण युग में एवं संस्कृत साहित्यक काव्य परंपराक मध्य युग मे अंतर्जातीय विवाहक प्रचलन छल। कविवर राजशेखरक पत्नी कवियत्री अवन्तिसुंदरी क्षत्रिय कन्या छलीह। राजतरंगिनी मे एक तरहेँ कतेको उदाहरण उपलब्ध होइत अछि किन्तु परवर्ती काल मे अंतर्जातीय विवाह प्राय: अस्वीकृतहि मानल गेल अछि। आइ सेहो वर एवं वधूक योगयता तथा कुल आदिक परीक्षण कए विवाह यज्ञ सम्पन्न कैल जाइत अछि। एहि यज्ञ मे गणित विद्या विशारदक अनुसार शुभ मुहुत्र्त स्थिर कए देव देवीक आराधनक बाद पिता वरक हाथ मे कन्याक दान करैत छथि। परंपरानुसार कतिपय विधि-विधानक निर्वाह तथा मंगलाचार होइत अछि। विवाह कालक उक्ति सँ ई संबंध वर एवं वधूक जीवन मे एक बड़ पैघ सामाजिक संक्रमणक प्रतीक थीक। विवाह संबंध भोग-विलासक अथवा असंयत जीवनक एक मार्ग नहि अपितु जीवन मे एक महत्ï उत्तरदायित्वक वहन करब थीक। 'मंडपÓ आदि शब्द केँ देखला सँ एवं ओकर निर्माण मे कतिपय व्यक्तिक सहयोगक उपलब्धि सँ एहन-सन प्रतीत होइत अछि जे समाज मे समर्थ व्यक्ति सभक द्वारा एक गृह निर्माण पूर्वक वर-वधु केँ गाहर्यस्थक जीवन मे प्रवेश कराए कत्र्तव्यक भार वहनक लेल प्रेरित कएल जाइत छल। ओ लोकनि गार्हस्थय जीवन मे प्रवेश कए पितृ ऋणक संग-संग आनो कतेको ऋण सँ उद्धार प्राप्त करैत छलाह। प्राचीन कुल केँ छोडि़ कऽ आएल नववधू अपन त्याग एवं कुलीनता सँ ओहि घर पर अधिकार प्राप्त करैत छलीह तथा सभ कार्य मे सहधर्मिणीक स्वरूप निर्वाह करैत छलीह। अत: भारतीय संस्कृति मे विवाह यज्ञ अतिशय पवित्र तथा त्यागक आधारशिला थीक।


(लेखक डा. लक्ष्मण चौधरी 'ललितÓ , ललित नारायण मिथिला विश्विद्यालय दरभंगा मे मैथिली विभागाध्यक्ष रहि चुकल छथि।)

शनिवार, जनवरी 9

श्रोतिय योग आ जयवारक वियाह पद्धति मे अंतर किएक?

वियाह एकटा, एहन संस्था छइ जे समाजक नैसर्गिक आवश्यकता अछि। मैथिल ब्राह्मïण अपना मे श्रोती, योग आ जयवारक नाम पर अलग-अलग पद्धति विकसित केने छथि। जाहि सँ मैथिल ब्राह्मïण अपन उपजाति के द्वन्द्व मे फंसल छथि। श्रोतिय ब्राह्मïण पच्चीस हजार जनसंख्या मे अधिकार माला लÓ घूमैत रहति छथि। हुनका पछवारि परक योग वर नहि चाहियइन। बहुत रास एहनो घटना भेटत जे श्रोती योग (भलमानुस) के झगड़ा मे एकटा सुंदर कनिया अपंग-अपाहिजक संग इच्छाक विरुद्ध लागी जाइये कारण जे कम जनसंख्या हेवाक कारणे तथा मिथिला मे प्रचलित पंजी व्यवस्था के परिणामस्वरूप अधिकार माला मे कनिया के मुताबिक सुयोग्य वर नहि छल आ कनिया के योग्यतानुसार पछवारि पार जाएल नहि जा सकैत अछि। कारण जे जाति टूटि जेतान्हि। आनो सोझे विवाह पद्धति के अंतर के लÓ बात करी तÓ मूल संरचना एकहि छैक खाली फराक बूझना जाइ छइ। ताहि मे सामाजिक कारण सेहो जिम्मेवार होइत रहल। जेना बरियाती वियाहक वेदो के सामने अहोरात बैसबाक प्रचलन। ई प्रचलन श्रोतिय ब्राह्मïण मे अखनो प्रचलित छैक। मूलत: बरियाती गवाह होइत छई। सामाजिक गवाह किएक त कोर्ट कचहरी के व्यवस्था नहि रहै। सरकारी पंजीकरण सेहो नहि। हाल मे फ्रांस के किछु दार्शनिक के धारणा बनलनि अछि जे वियाह संस्थाक निर्माण यौन अराजकताक कारणे पसरल बीमारी सँ भेल। संभवत: एहने किछु समझ के परिणाम सँ विवाह संस्कार के उत्पत्ति भेल। तैं गवाह के सेहो निर्माण कैल गेल की अमूक स्त्री अमूक पुरुष सँ जुड़ल छथि आ अमूक पुरुष अमूक स्त्री सँ। अत: दुनू गाम वर आ कनिया के दिस सँ बरियाती-सरियाती के अनौपचारिक गवाह होइत रहल ताकि सामाजिक अराजकता के बढ़ावा नहि भेटइ।
श्रोतिय ब्राह्मïण मे कम जनसंख्या हेबाक परिणाम रहल या परम्परा के प्रति जुड़ाव से नहि स्पष्टï अछि मुदा बरियाती अखनो वेदी पर बैसेत छथि। एम्हर पछवारि पार मे किछु ऐहन घटनाक्रम होइत रहलइ जाहि सँ बरियाती के वेदी पर बैसेवाक प्रथा खतम भ गेल। निसंदेह अहि तर्क सँ दुनू गोटे फराक भÓ गेला। छवारि पार मे सेहो किछु विधि मे अंतर देखबा मे अबैत अछि जाहि सँ योग (भलमानुस) आ जयवार के पद्धति मे भिन्नता भÓ गेल। बरियाती के अनउने खेनाइ पात पर नोन द कÓ खुवेबाक प्रथा श्रोती आ योग दुनू मे छन्हि आ एक सांझक भोजन के इंतजाम मुदा जयवार मे तीन सांझ बरियातीक भोजन नोनगर तीमन-तरकारी आ दोसर-तेसर सांझ माछ मउस सेहो केर प्रथा छनि। बरियातीक स्वागते सँ फर्क शुरू भÓ जाइ छइ। श्रोती आ जयवार दुनू मे हथघड़ी के प्रथा छनि मुदा जयवार लोकनि हथपकड़ा कहै छथिन्ह मुदा पढ़ल-लिखल जयवार परिवार मे हथघड़ी कहल जाइत छइ।
भलमानुस लोकनि बरियाती के रस्ता देखेबाक वास्ते गाम के सिमान पर कनिया पक्षक लोक के ठाढ़ केने रहइ छथिन्ह। तखराबाद श्रोती मे कुमरम के खोज छइ आ वरक केश कटेबाक प्रथा। एक बात आउर जे वर अपन हाथ मे दोपटा लपेटने मुँह झपने रहइ छथि। परिछन सँ ल कÓ चतुर्थी तक। ई प्रथा आब मात्र श्रोती मे छनि। दोसर इ जे श्रोती ब्राह्मïण मे कनिया वेदी या कोनो विध काल मे आँखि मुनने रहै छथिन्ह मुदा मुँह उधार रहै छन्हि। पछवारि पार मे विधकरी अपन आँचर सँ कनिया के मुँह झपने रहैत छथि। वियाह सँ चतुर्थी धरि कनिया आ वरके एक घंटा कोहबर मे सुतबाक विध छइ ताहि मे विधकरी संगे सुतल रहै छथिन्ह। शेषकाल वर विश्रामक घर मे रहै छथि आ कनिया कोहबर मे। ओना विधकरी के कनिया वरक बीच मे सूूतबाक प्रथा किछुए वर्ष पहिने भलमानुस आ जयवार मे खतम भेलनि। मुंहबज्जीक परम्परा श्रोतिये टा निर्वाह कÓ रहल छथि।
ओना कने-मने वेदी पर सेहो अंतर मे जेना श्रोतिय लोकनि अपन सब किछु जेवर के देबाक रहइ छनि से वेदिये पर राखि दइ छथिन्ह जे किछु छथिन्ह कारण वेदी तर सँ दुरागमन क रेवाज सेहो पसरि गेलइ अछि। लेकिन वेदी तर सँ दुरागमन नहि भेला पर घसकट्टïी तथा वेदी उखाड़बा काल मे रूसल जमाय के मनेबाक वास्ते एक एकटा चीज वेदी पर सँ अलग राखि देल जाइ छन्हि।
चतुर्थीक सौजन मे कोनो अंतर पैदा नहि भेल अछि। तखन श्रोती मे ज कोनो वर के विदाइ होइ छन्हि त कनियाँ हुनका संगे कनैत गामक सिमान तक जाइ छनि या घरक लग पासक पोखरिक घाट तक। फेर कनिया वापस। आब ओना अधिसंख्य श्रोतिय ब्राह्मïण परिवार मे वेदिये तर सँ दुरागमन हुउÓ लागल अछि।
किछु-किछु दुरागमन सँ भडफ़ोड़ीक दौरान विध मे सेहो अंतर भÓ गेल अछि। जेना भडफ़ोड़ोक भोज मे कनिया चीनी परसै छथि आ पछवारि पार मे एकहि हाथे माछ बनैनाइ, कटनाइ आदि।
सवाल छइ जे इ सब अंतर भेल परन्तु एकर किछु कारणो हेबाक चाही जाहि द्वारे ई अंतर विकसित भेल। एकर मूल मे ई कारण रहल जखन पंजी व्यवस्था के निर्माण भेलाइ आ श्रोती योग के वर्गीकरण भेलइ। त किछु-किछु विध के फराक करऽ अपना-अपना के फराक साबित करÓ लगला। दोसर जे अपन-अपन विशिष्टïता के कारण एक दोसर के ओत जान-आन सेहो बंद भÓ गेल परिणाम भेल जे किछु विध बदली गेल।

गुरुवार, जनवरी 7

वियाह : स्वरूप, संकल्पना आ सिद्धांत

पाश्चात्य चिंतन ओ विचारक अनुसार विवाह एक सामाजिक व्यवस्था अछि। स्वतंत्र यौनाचार के रोकए वास्ते जे मानव सभ्यताक विकासक संग अस्तित्व मे आयल। परञ्च भारतीय चिंतन व दर्शन के अनुसार विवाह एक धार्मिक कृत्य अछि। जाहि नींव पर वर्णाश्रम धर्म ओ वर्ण व्यवस्थाक महल ठाढ़ अछि ओहि आधार पर समस्त हिन्दू दर्शन टिकल अछि। चारि वर्गक (ब्र्राह्मïण, क्षत्रिय, वैश्य ओ शूद्र) उत्पत्तिक समान चारि आश्रमो (ब्रह्मïचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ ओ संन्यास) के उदï्गम भारतीय मनीषी-ब्रह्मïा सँ मानैत छथि। तैं मिथिला मे आइयो ई कहबी प्रचलित अछि कि विवाह, जन्म ओ मरण विधिक हाथ मे छैक। चारि आश्रम मे सर्वतोभावेन महत्व। गृहस्थ आश्रम के देल गेल अछि। जेना सभटा नदी समुद्र मे जाकऽ आश्रय ग्रहण करैत अछि तहिना सब आश्रयक मनुष्य गृहस्थे आश्रम मे आश्रय प्राप्त करैत छथि। और एहि गृहस्थ आश्रम क मूल मे अछि स्त्री-पुरुषक संयोग विवाह संस्कार द्वारा।
वैदिक साहित्य मे यद्यपि चारि आश्रमक स्पष्टï उल्लेख नहि भेटैत अछि परञ्च वैदिक संहिताक अतिरिक्त ब्राह्मïणक ग्रंथ, आरण्यक उपनिषद आदि मे चारि आश्रमक सत्ताक स्पष्टï संकेत भेटैत अछि। तैतरीय ब्राह्मïण के अनुसार प्रत्येक मनुष्य तीन ऋण लऽक उत्पन्न होइत अछि देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृऋण। पितृ ऋण सँ मुक्ति हेतु आवश्यक छैक कि मनुष्य विवाह कय संतानोत्पत्ति करे एवं ओकर उचित पालन-पोषण करे। ऋग्वेद के अनुसार विवाहक तीन टा मुख्य प्रयोजन अछि—1। वीर एवं सुयोग्य संतानक प्राप्ति तथा संतानक द्वारा अमरत्वक प्राप्ति। 2. धर्मक पालन-किएक तऽ कोनो याज्ञिक अनुष्ठïान पत्नी के बिना पूर्ण नहि हैत। 3. रति या इन्द्रिय सुख। उपनिषद इन्द्रिय सुखक तुलना ब्रह्मïानन्द सँ करैत अछि। आगा चलिक मनुजी विवाहक चारिम प्रयोजन स्वर्गक प्राप्ति (अपनो लेल तथा पितरक लेल) बतवैत छथि। अतएव संतान, धर्मकार्य, रति सुख और स्वर्गक प्राप्ति हेतु प्रत्येक मनुष्य के विवाह संस्कार आवश्यक मानल गेल। यद्यपि वैदिक काल मे आजन्म ब्रह्मïचारिणी कन्याक एकाधटा उदाहरण भेटैत अछि। परन्तु रामायणकाल मे कन्याक विवाह अनिवार्य मानल जाइत छल तथा कन्याक वैवाहिक जीवन के सफल एवं सुखमय बनैवाक हेतु हुनक अभिभावक पूर्ण प्रयत्न करैत छलाह। प्रारंभ मे कन्या के स्वयं वर चयन कर के अधिकार छलैन्ह किएक तऽ स्वयंवरक प्रथाक प्रचलन छल। किन्तु रामायण काल मे कन्याक पतिवरण मे स्वतंत्रता प्राप्ति नहि छल। स्वयंवरक उल्लेख होइतो, एहि मे अभिभावक इच्छाक सहमति आवश्यक छल।
विवाह संस्कारक संपूर्ण विधि संपादन हेतु ऋषि-महर्षि द्वारा विधि ओ विधान निर्धारित कैल गेल जाहि मे वर-वधू क उम्र, कुल, देशकाल सभ पर विस्तृत चर्चा केल गेल अछि। (नारद स्मृति, पराशर स्मृति, मनुस्मृति आदि) मिथिला मे याज्ञवल्क्य स्मृतिक प्रधानता रहल। विवाह संबंध निर्धारित करैत काल ई ध्यान राखैत जाइत छल कि वर ओ वधू सदृश हो अर्थात्ï गुण कर्म ओ स्वभाव मे वर-वधू मे समानता हो। कुलक समानता, शील स्वभावक सदृशता, शरीर एवं रूपक सदृशता, आयुक अनुकूलता, विधाक सदृशता, आर्थिक स्थितिक समानता आदि पर विचार कैल जाइत छल। कुलक बहुत महत्व देल गेल छल। कुल परिवार या वंश गुण दोष संतानो मे अवैत छैक तैं विवाहक संबंध निर्धारण मे एहि बातक विचार संपूर्णता सँ कैल जाइत छल।
विवाह अपने वर्ण वा जाति मे संभव छल। परञ्च सगोत्रिय विवाह निषिद्ध छल। गोत्र कुल व परिवारक प्रतीक छल। एक गोत्र मे उत्पन्न सब व्यक्ति परस्पर भाई-बहिन के संबंध मानैत छल तैं सगोत्रिय विवाह वर्जित छल। एकर अतिक्रमण के प्रमाण भारतक अन्य भाग मे यदा-कदा देखाइ परैत अछि। परन्तु मिथिला मे सगोत्रिय विवाहक प्रमाण अपवादो स्वरूप नहि देखाइ पड़ैत अछि। बहुपत्नी विवाहक प्रमाण अपवादो स्वरूप नहि देखाइ पड़ैत अछि। बहुपत्नी विवाह क प्रचलन नहि छल। यद्यपि ऋषि याज्ञवल्क्य के दू पत्नी (मैत्रेयी व कात्यायनी) छल परञ्च समाज मे इ प्रथा प्रचलित नहि छल। मिथिला त्यागक संस्कृति मे विश्वास करैत छल। पुरुष एक पत्नीव्रत तथा स्त्री पातिव्रत्य धर्म के पालन केनाइ अपन जीवनक सार्थकता मानैत छल। पातिव्रत्य धर्म के अनुपम उदाहरण जगत जननी सीता के वैवाहिक जीवन मे देखल जाइत अछि, जे संसारक इतिहास मे भूतकाल सँ लऽक आद्यावधि समस्त मानवजाति के लेल अनुकरणीय मानल गेल। धर्मशास्त्रक विधानक अनुसार कन्याक रजस्वला होबय सँ पूर्व विवाह कऽ देवक चाही एकर ध्यान रखैत बाल विवाहक प्रचलन छल। पत्नीक मृत्युक उपरांत पुनर्विवाह क व्यवस्था छल। विधवा विवाहक अनुमति छल परन्तु उच्च जाति मे एकर उदाहरण नहिये टा भेटैत अछि। भारतक अन्य भाग मे नियोग आदि क व्यवस्था कतिपय स्थिति मे मान्य छल परञ्च मिथिला मे नियोग द्वारा संतानोत्पत्तिक उदाहरण नहिए टा भेटैत अछि। पति व पत्नी कोनो एक दोसर के त्यागि नहि सकैत छल और एहन कुकर्म के वास्ते कठोर दंड के व्यवस्था छल। वैश्य व शूद्र जाति मे महिला मे पुनर्विवाहक व्यवस्था छल।
मुगल शासनकाल के अबैत देरी मिथिला मे बहुपत्नी विवाहक प्रचलन प्रारंभ भऽ गेल। कुल के मर्यादा क रक्षाक नाम पर कुलीन प्रथाक प्रचलन भेल तथा एक पुरुष के दस-बीस कन्याक संग विवाह के प्रचलन मिथिला मे प्रारंभ भेल। कालांतर मे सामाजिक चेतनाक परिणाम स्वरूप क्रमश: ई प्रथा समाप्त भेल। संपूर्ण हिन्दू समाजक भांति मिथिला मे सेहो इ मान्य छल कि विवाह संबंध जन्म जन्मांतर के लेल होइत छल। तैं विवाह-विच्छेदक उदाहरण (पत्नी द्वारा पति के परित्याग वा पति द्वारा पत्नी के परित्याग) नगण्य अछि। विवाह के अनेक प्रकार के वर्णन जे धर्मशास्त्र मे वर्णित अछि ताहि मे आर्ष, दैव विवाह के प्रचलन मात्र मिथिला मे छल।

शनिवार, जनवरी 2

अपरिहार्य आत्म मंथन

वियाह व्यक्तिक संस्कारक हिस्सा मानल जाइत छैक। कहल जाइत छैक जे वियाह स्वर्ग मे तय होइत अछि। दू प्राणीक तन-मन आ आत्माक मिलन होइत अछि ई। एगो ऐहन बंधन जाहि मे व्यक्ति स्वयं बन्हाय चाहैत छैक। वियाह केँ गृहस्थ जीवनक आधार मानल जाइत अछि। कहल गेल अछि सफल गृहस्थ जीवन बीताबय बला लोके मोक्ष प्राप्त कऽ सकैत अछि आ स्वर्ग जा सकैत अछि। गृहस्थ जीवन मे जीवनक सभ भाव, दशा रस आ ज्ञानक रहस्य नुकायल अछि। तैं एकरा मानव लेल अपरिहार्य बना देल गेल अछि।
वियाह पवित्र बंधन अछि। सुख-दु:ख मे एक-दोसरक संग नहि छोड़बाक प्रण लैत छथि वर-कन्या। साक्षी बनैत छथि अग्निदेव सहित भगवान। एकरा यज्ञ मानल गेल अछि, पवित्र अनुष्ठïान। कन्यादान सबसँ पैघ दान अछि। वियाह मे 'वरÓ मंत्र पढ़ै छथि आ 'कन्याÓ केँ 'पत्नीÓ के रूप मे स्वीकार करैत छथि। कन्याक अनुमोदन लेल जाइत अछि़? पत्नी रूप मे स्वीकार करबाक प्रयोजन की? तँ कि वियाह 'संस्थागतÓ होयबा सँ पूर्व उन्तुक्त यौनाचार रोकवाक साधन के रूप अस्तित्व मे आएल? कम सँ कम भारतीय दर्शन आ संस्कृति मे एहि पश्चिमी सोच प्रतिबिम्ब नहि भेटैत अछि।
पहिने स्वयंबर होइत छल, ई नारीक सामाजिक स्थिति पर प्रकाश दैत अछि। बाद मे स्वयंबर शर्त सँ जुड़ल आ फेर ओहि मे कन्याक अभिभावक हस्तक्षेप होमय लागल। सीताक स्वयंबर मे शिव-धनुष तोड़बाक शर्त जनक केर छलन्हि। गौरीक वियाह मे सिर्फ गौरीक शिव सँ वियाह करबाक अदम्य इच्छा आ तपस्या प्रमुख छलन्हि। आब स्वयंवर इतिहास बनि गेल अछि आ 'कोट मैरिजÓ अस्तित्व मे आएल अछि। की एहि वियाह केँ स्वयंबरक बदलल रूप नहि मानल जा सकैत अछि? पारंपरिक वियाहो पर तऽ बदलैत समयक स्पष्टï प्रभाव देखबा मे आबि रहल अछि।
समयक प्रभाव प्रत्येक युग मे रीति-रिवाज आ संस्कार पर पड़ैत रहल छैक। अति प्राचीन काल मे बहुपत्नीक उदाहरण नहि भेटैत अछि मुदा बाद मे ई प्रचलन मे आएल। इहो प्रथा अब प्राचीन आ पौराणिक सहमति प्राप्त कऽ चुकल अछि। समयक प्रभाव सँ वियाहक बहुप्रकार आ नियोग समाप्त भऽ चुकल अछि। मिथिला ताहु समय मे अपना के बदलैत समयक प्रभाव सँ बहुत हद तक बचा केँ रखने छल। आजादी सँ पहिने तक रीति-रिवाज संस्कार आ परंपराक जतबो 'धरोहरिÓ बचल छल आब लुप्तप्राय भऽ रहल अछि।
वियाह मे बरियातिक प्रचलन सेहो अति प्राचीन अछि। बरयाति शिव-विवाह काल मे सेहो वियाह अनिवार्य आ अपरिहार्य हिस्सा छल। तऽ की ओ वियाहकेँ मान्यता देभय बला सामाजिक गवाह होइत छलाह आ की मन्यागत दिस सँ यैह भूमिका सरयाति निभाबैत छलाह? मुदा आब बियाहक संग बरयातिक स्वरूप सेहो बदलि रहल अछि। महिला लोकनि आब नहि सिर्फ बरयातिक हिस्सा बनय लगलीह अपीतु बैंडक धुन पर सेहो नाचय लगली। खान-पान मे पत्तल के जगह प्लेट लऽ रहल अछि तऽ महानगर मे बफे सिस्टम (स्वयं खाना उठाक आ ठाढ़े भऽ खाक) हावी भऽ रहल अछि।
समयक संग सौराठ सभा सेहो अप्रासंगिक बनल जा रहल अछि। अपन एहि धरोहरि के बचा पाबैक क्षमता चूकैत बुझा रहल अछि। विकल्प पर ध्यान देब या सौराठ सभा केँ पुन: स्थापित करब की हमर सामाजिक नैतिक कत्र्तव्य नहि अछि? आरोप-प्रत्यारोप आ अनावश्यक तर्क-वितर्क इपर उठि की सभकेँ मिलि एहि पर गंभीर आ सार्थक पहल नहि करबाक चाही? सौराठ वासी अपना के निर्दोष नहि मानि सकैत छथि आ ने कोनो मिथिलावासी एहि खतराक प्रति उदासीन भऽ सकैत छथि? पंजी व्यवस्था महत्व बुझि ओकरा बचायब सेहो सामाजिक दायित्व अछि।
तिलक सामाजिक अभिशाप अछि आ अवरोधक मिथिला केर विकास मे प्रति वर्ष पचास करोड़ सँ बेसीक राशि मात्र वियाह आ बरयातिक ताम-झाम पर बुकल जाइत अछि। एत्तेक खर्चक बाद कै कहे सकत मिथिला पिछड़ल आ गरीब अछि? व्यवस्था एहि दोख के समग्रता सँ विचार कऽ दूर करबाक प्रयोजन अछि। की लड़की केँ एहि लेल 'लक्ष्मीÓ मानल जाइत अछि? तिलक आ बरयातिक ताम-झाम पर जत्तेक राशि हमरा लोकनि खर्च करैत छी, तकर सार्थक सदुपयोग नहि कएल जा सकैत अछि की?
समाज तेजी सँ बदलि रहल अछि आ एकर चपेट मे आबि रहल अछि मिथिलाक सामाजिक-सांस्कृतिक जीवनक प्रत्येक ओ 'धरोहरिÓ जे व्यक्तिक जीवनक अभिन्न हिस्सा होइत छल। आवश्यकता अछि पुन: मंथन केर। अपन लेल नहि, समाज लेल, इतिहास लेल आ भविष्य लेल।
—विपिन बादल