गुरुवार, फ़रवरी 5

कविता / भाग्य


पति कें गप्प नहि मानि

जतेक सुख करैत छथि

भवि’यक लेल ओतबे

दुःखक पहाड़ बनाबैत छथि

कखन धरि रहि सकैत छथि ओ

अपन नैहर मे,

बाप-भाय पर आश्रित भ क।

एक ने एक दिन हुनका आबय पड़तैन्ह

सासुरक चैखटि पर

अन्तकाल मुखाग्नि सेहो सासुरपक्ष सँ भेटतैन्ह

पति केँ तिरस्कार कय क

ओ कहियो नहि भ सकैत छथि सुखी

पायक बले किराया कें आदमी आनि सकैत छथि

मुदा पति नहि ?

ओहेन कमाई, कमाई किं

जाहि मे जिनगी गंवा दी

लक्ष्मी त चंचला छथि

आई नहि त काल्हि अएबै करतीह

मुदा,

जिनगीक ई पल नहि घुरत

जदि दू-चारि साल बाद घुरब

तहनो बहुत किछु नहि भेटत

पूरा जिनगी दरकि जाएत।

कतेक पढ़ल-लिखल मूर्ख अछि ओ

जे पति केँ भाग्य कें त कोसैत अछि

मुदा, अप्पन कें नहि?


सुभाष चन्द्र,

कोई टिप्पणी नहीं: