बुधवार, फ़रवरी 4

कविता / आशा

मानव-जीवनकेर प्रथम ज्योति
ओ बाल-रविक-स्वर्णिम प्रका’ा
अछि लुप्त भेल न’वर जग सँ
जागल अछि ग्रहण चास-बास
मधु-ऋतुक सुकोमल पल्लवकेँ
अछि तोड़ि दैत पछबा-बसात
तैँ कहू कोना संभव होएत
सुकुमार-भावनाकेर विकास
सागरक लहरिसन अछि उठैत
अभिलास मनहिमन नित-नवीन
संकट पहाड़केर ठोकर सँ
भ जाइछ ओ लगले विलीन
बिखरल जीवन-कणकेँ तैयो
दिन-राति संजोगि रहल छी
आशा-मरीचिका केर पाछाँ
जीवन मे दौड़ि रहल छी।

- प्रभा झा

1 टिप्पणी:

विनीत झा ने कहा…
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