बुधवार, जुलाई 22

मधुश्रावणी

मिथिला गौरवमयी संस्कृतिक इतिहास अपन इतिहास अपन आॅचर मे अनेको लोक पर्व के समेटने अनुपम लोक गाथाक सनेष दैत रहल अछि। एहि लोक पर्वक कड़ी मे श्रावण मास मे नव बिबाहित द्वारा मनाओल जाय बला पावनि अछि - ‘मधुश्रावणी’। ‘मधुश्रावाणी’ मुख्यतया मिथिलांचलक ब्राह्मण ओ कर्ण-कायस्थ परिवारक नव विवाहित स्त्री द्वारा अपन सुहागक रक्षा हेतु मनाओल जाइत अछि। ओना आब आनो वर्गक स्त्री लोकनि कँ एहि पावनि मे रूचि बढ़लनि अछि।
‘मधुश्रावणी’ श्रावण मासक कृश्ण पक्ष चतुर्थी कँ प्रारंभ होइत अछि आ षुक्ल पक्ष तृतीया कऽ समाप्त होइत अछि। मोटा-मोटीश्एक पक्ष धरि चलय वाला ई पावनिक मनोहारी वातावरणक परिचायक थिक। एहि पावनिक आकार्शक ओ व्यवहार अनुपम अछि। ई पावनि नवविवाहिता अपन नैहर मे मनबैत छैथि, लेकिन पावनिक अवधिक कपड़ा-लत्ता, भोजन ओ पूजा सामग्रीक प्रयोग सासुरेक कएल जाइत अछि। एहि हेतु नवविवाहिताक सासुर सँ भारक रूप मे सब वस्तु-जात हुनक नैहर पठाओल जाइत छन्हि। एहि अवसर पर मिथिला मे भार ओ भरियाक दृष्य मनोहारी लगैत अछि।
ओना तऽ ई पावनि विधिवत श्रावण कृश्ण पंचमी सँ प्रारंभ होइत परन्तु एकर विध चतुर्थीएँ सँ प्रारंभ भऽ जाइत। एहि दिन सँ नवविवाहिता लोकनि अरबा-अरबानि खाईत छथि। साँझ मे सजि-धजिकऽ सखी-बहिनपाक संग विभिन्न फूलबाड़ी सँ फल, फूल पात, जकरा ‘जूही-जाही’ कहल जाइत अछि, लोढ़ि कए अपन डाली मे सजा कऽ गीत गबैत अपन घर अबैत छथि। ई क्रम पूजा समाप्तिक एक दिन पहिने धरि चलैत अछि। पंचमी दिन सँ सासुर सँ पठाओल साड़ी-लहठी, गहना आदि पहिर व्रती पूजाक तैयारी करैत छथि। एहि पावनि मे मुख्य रूप सँ गौड़ (गौरी) एवं नागक पूजा होइत अछि।
एहि पूजाक लेल सबसँ पहिने एकटा कोबर बनाओल जाइत अछि अथवा घर मे विवाह मे कोबर रहैत ओतय पूजाक हेतु कलष पर अहिवातक वाती प्रज्वलित कएल जाइछ। सासुर सँ पठाओल हरिदिक गौड़ आ एकगोट नैहरक सुपारी, लग मे मैनाक पात पर धानक लावा राखि ओहि पर दूध चढ़ाओल जाइत अछि। बिसहारा जो गौड़ीक अतिरिक्त उज्जर फूलसँ चन्द्रमाक पमजा सेहो कएल जाइत अछि, मुदा गौरीक पूजा सिन्दुर ओ रंगक फूल सँ होइछ।
‘मधुश्रावणीक’ अरिपन मुख्यरूपें मैनाक दूटा पात पर लिखल जाइत अछि। जतय व्रती बैसिकऽ पूजा करैत छथि आ एहिक दूनू कात जमीन पर सेहो अरिपन बनाओल जाइत अछि। जमीन परहक अरिपन के उपर मैनाक पात राखल जाइत अछि। बायाँ कातक पात पर सिन्दूर आ काजर सँ एक आंगुरक सहारा लय एक सौ एक सर्पिणीक चित्र बनाओल जाइत अछि, जे ‘एक सौ एकन्त बहिन’ कहाबैत छथि। एहि मे ‘कुसुमावती’ नामक नागिनक पूजाक प्रधानता अछि। दायाँ कातक पात पिठार सँ एक सौ एक सर्पक चित्र सेहो एक्के आुगंर सँ बनाओल जाइत अछि, जकरा ‘एक सौ एकन्त भाई’ कहल जाइत अछि, एहि मे ‘वौरस’ नामक नागक पूजा मुख्यरूपें होइत अछि। एहि पावनि मे मैना पातक उपयोग एहि दुआरे कएल जाइत अछि, जे पुराण सब मे कहल गेल अछि कि हिनक पालन पोश्ण एहि मैनाक पातक बीच होइत छन्हि। संगहि मैना पातक रासायनिक गुणक कारणें एकता वषीकरण षक्तिक स्रोत सेहो मानल जाइत अछि। ताहिं मिथिला मे कईक मौका पर मैना पातक व्यवहार होइत अछि आ सुहागिन काजर आ सिंदूर धारण करैत छथि।
पूजाक अवधि मे षिव-पार्वतीक विभिन्न कथा सेहो कहल जाइत अछि। जाहि मे पुमुख अछि - ‘विहुला मनसा’, ‘मंगला गौड़ी’, ‘विश्हारा’, ‘पृथ्वी जन्म’, ‘सीता पतिव्रता’, ‘उमा पार्वती’, ‘गंगा-गौड़ी जन्म’, ‘कामदहन’, ‘लीली जन्म’, ‘बाल बसंत’ आओर ‘राजा श्री करक क कथा एहि तरहे सबदिन मोर मे पूजा होइछ, कथा होइत आओर साँझ कए जूही-जाही लोढ़वा मिथिला मे जतेक पर्वत संग लोक गीतक प्रमुख स्थान अछि तंे एहि पावनिक अवसर बिसहारा आ गौरी गीतक प्रचलन अछि।
श्रावण षुक्ला पक्ष तृतीया ताहि दिन मधुश्रावणी होइत अछि ओहि दिन वर पुनः नवविवाहिता के सिन्दूरदान करैत छथि, जकरा तेसर सिन्दूरदान कहल जाइत अछि। (एहिसं पहिने वियाहक राति पहिल बेर आ चार दिनक बाद चतुर्थीक मोर मे दोसर बेर सिन्दूरदान होइत छेक) तें ई तेसर सिन्दूरदानक पर्व मिथिलांचल नारी संस्कृतिक परिचालक थिक। संगहि सासुर सँ पठाओल गेल दीपक टेमी सँ विधकरी व्रती के दागैत छथि। टेमी सँ दागलाक बाद फोंका मेनाई गुमा माल जाइत अछि। पतिक दीर्घजीवनक मंगलकामना करवाक सब सँ विषिश्ट पर्व मधुश्रावणी मैथिल ललनाक समपिण एवं सहिश्णुता क कामना तथा निश्ठा एवं संस्कृतिक परपराक प्रति प्रेमक प्रतीक थिक।

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