नहि बूझि रहल छी किए हम जीवि रहल छी,
जे फाटि चुकल केथरी किए सीवि रहल छी।
छल मनमे भेल, छूबि लेब सोझ अछि, चान,
हाथे बढय़बाक ताओमे हम लीवि रहल छी।
मरूभूमि बीच देहरि आ भॉंय-भॉंय-भाँय,
खाली गिलास सेप अपन पीबि रहल छी।
नहि सूझि रहल बाट आ अथाह ई सागर,
नहि होयत कयल पार पाल झीकि रहल छी।
छल संगी जे एक सेहो छोडि़ पड़ायल,
लसि कोन एहन व्यर्थ देहर नीरि रहल छी।
नहि बूझि रहल छी किए जीवि रहल छी,
जे फाटि चुकल केथरी किए सीवि रहल छी।
(ई रचना धरोहरि के अंतर्गत प्रकाशित कएल जा रहल अछि, जकर रचनाकार प्रसिद्घ गीतकार-नाटककार सुधांशु शेखर चौधरी छथि।)
शनिवार, जुलाई 4
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umda
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