’सभ सँ छोट लघुकथा की भ सकैत अछि ?’- एकटा साक्षात्कारमे वि’ोसज्ञ आवेदक सँ पूछलथिन।
’सभ किछु मरि गेल’ - आवेदक किछु सोचैत झटसँ उत्तर देलनि। आई व्याख्याता पदक लेल साक्षात्कार चलि रहल छलै।
’कोना - ई लघुकथा कोना भेल ? ’
’श्रीमान, एहि पाँतिमे अपने साहित्यक सभरस ताकि सकै छी एवं ई स्वयंमे पूर्ण अछि। ’
कि तावते वि’ोसज्ञकेँ एकटा फोन अबैत छनि। मोबाइल पर भेल वार्तालापक अर्थ आवेदक नीक जेकाँ बूझि गेल छला।
’हम नहि बूझि सकलहुँ। अहाँ एकरा विस्तार सँ बुझाउ ’ - वि’ोसज्ञक मुखमुद्रा बदलल छल जकरा आवेदक स्पस्ट अनुभव कयलनि।
’छोड़ू ने श्रीमान, यदि विस्तार सँ कहय लागब तँ ई दीर्घकथा भ जायत। ’
कहैत आवेदक ठाढ़ भ गेट खोलि बाहर निकलला। बाहर एखनो प्रत्या’ाीक भीड़ उमड़ले छल।
- सत्येन्द्र कुमार झा, आका’ावाणी दरभंगा
मंगलवार, फ़रवरी 3
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