पति कें गप्प नहि मानि
जतेक सुख करैत छथि
भवि’यक लेल ओतबे
दुःखक पहाड़ बनाबैत छथि
कखन धरि रहि सकैत छथि ओ
अपन नैहर मे,
बाप-भाय पर आश्रित भ क।
एक ने एक दिन हुनका आबय पड़तैन्ह
सासुरक चैखटि पर
अन्तकाल मुखाग्नि सेहो सासुरपक्ष सँ भेटतैन्ह
पति केँ तिरस्कार कय क
ओ कहियो नहि भ सकैत छथि सुखी
पायक बले किराया कें आदमी आनि सकैत छथि
मुदा पति नहि ?
ओहेन कमाई, कमाई किं
जाहि मे जिनगी गंवा दी
लक्ष्मी त चंचला छथि
आई नहि त काल्हि अएबै करतीह
मुदा,
जिनगीक ई पल नहि घुरत
जदि दू-चारि साल बाद घुरब
तहनो बहुत किछु नहि भेटत
पूरा जिनगी दरकि जाएत।
कतेक पढ़ल-लिखल मूर्ख अछि ओ
जे पति केँ भाग्य कें त कोसैत अछि
मुदा, अप्पन कें नहि?
सुभाष चन्द्र,
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