शनिवार, फ़रवरी 14

लघु कथा / डायन




अंकुर कुमार झा




सुंदर बाबु के मरला के किछुये दिनक बाद स समूचा गाम पाही वाली के डायन कह लागल। सब हुनका सं ई”र्या करैत छेन। मौगी हुवै वा पुरू”ा, जवान हुवै वा वृद्ध सब हुनका सं कन्नी काटैत छेन। बच्चा सब हुनका देख क भागैत अछि। पहिले त सब कानाफूसी करैत छल, मुदा आब त खुलेआम बाज लागल अछि। सब कहैत अछि जे मुसबा के गाय के वैह मारि देलखिन। मोहन बाबू के बच्चा के वैह खा गेलखीन। एत तक की बरहारावाली के रोगक दो”ाारोपण हुनके पर कैल जा रहल अछि।


पाहीवाली लोकक गप्प सुनि दुखी छैथ। सामाजिक व्यवहार देखि क्षुब्ध छैथ। अपना आप के अवहेलित महसूस करैत छैथ। एहि सोच मे पडल छैथ जे ऐना कियैक जाॅ हम ककरो जान ल सकैत छी वा ककरो रोगग्रस्त क सकैत छी त हम ओहि लोकक विचार कियैक नहि बदैल सकैत छी। मुदा अंधवि’वासक भंवरजाल मे फंसल लोक सब ई बुझ’ लेल कहां तैयार अछि ।

कोई टिप्पणी नहीं: