शनिवार, जुलाई 4

समाजक संकट

शरद अमावसकेर संध्यामे
सुदुक जैर अछि निर्बल कीट।
कहाँ जरै छै अधसर गहुमन
जे समाज केर संकट थीक।।

आन्हर आर बहीर जतय नृप
के देखतै आ सनतै बात।
आतंकक आदिके सुधिजन
कोन सान्हि धय भेल निपात।।

रहितै नहि अन्हार ककरो घर
नैंत नृपक जँ रहितै ठीक।
कहाँ जरै छै अधसर गहुमन
जे समाजकेर संकट थीक।।

जलचर, थलचर, व्योम, उभयचर
सभचर ताकि रहल आलोक।
अस्त-व्यस्त अछि उदय-अस्तधरि
भगजोगनीक भेल आलोप।।

चान, सुरूज त्यागल इजोत निज
ततबा आइ बनल तम ढीठ।
कहाँ जरै छै अधसर गहुमन
जे समाजकेर संकट थीक।।

लुत्तीभरि इजोत सए अग-जग
रहलै काटि अहुरिया आइ।
कानि रहलि चुलहा लग बैसल
सिदा बिना बहुरिया दाय।।

दूध बिना कामिनी कुच सूखल
मिझा रहल कत कुलकेर दीप।
कहाँ जरै छै अधसर गहुमन
जे समाजकेर संकट थीक।।

सूत सनक पातर आ तन्नुक
्रजतय आई लोकक संबंध।
चिन्तामे डूबल प्रवीणजन
कोना लोक स्वार्थें मे अंध।।

किछु कन्नारोहित अगबे
किछु घर गाबि रहल अछि गीत।
कहाँ जरै छै अधसर गहुमन
जे समाजकेर संकट थीक।।

- फूलचंद्र झा 'प्रवीणÓ

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