रविवार, जुलाई 12

कविता / आब नहि मजबूर

सूरजक ढलान पर
भोर सँ खटैत मजदूर
आब नहि अछि मजबूर
भ गेल छै आशाक संचार
भड़ैत अछि कल्पनाक उड़ान
फिफ्टी-फिफ्टी बाँटि देबैक।
आधाक मालिक हम
आ आधामे ओ सभ
देहक खून तँ सुखायल अछि हमरे।
तेँ आधामे आलू-दालि
पियाजु मिरचाइ
आ आधामे रघुआक संग
रधियाक दोकान मे
एक कटिया चिखनाक संग
राति भरि रहत बनल मतंग।।

- चंद्रमोहन झा 'पड़वा

1 टिप्पणी:

Neeraj Kumar ने कहा…

अति सुन्दर रचना अछि...फॉण्ट के कोलोर बदल दिय...पढ़बा में कठिनाई भ रहल अछि...