’मुदा ई कि भेल ? सुनैत रही जे अहाँक सभ बात पक्का भ गेल अछि। तखन एना किएक ? ’
’हँ, बात त पक्के छल। मुदा दोख हमरे जे एते पैघ आदमीक बहुत छोट बात नहि बुझि सकलौंह ?’ हारल स्वर मे सरयू बाबू बजलाह।
’से की? अहाँक कथा त आदर्शे ठीक भेल छल की ने ? फेर कोन व्यवधान भ गेल? बरागत अपना बात सँ फिरी गेलाह की?’
नहि ओ सभ तक अपना बात सँ नहि मुकरलाह, हमही एतेक पैघ भार उठाबै मे असमर्थ रही।
आदर्श आ भार ? हम किछु बुझि नहि सकलौंह, कने फरिच्छा के कहूने?
आ की कहू? ओ लोकनि त देवता छथि । जतैक पैघ ओतबा उदार आ विनम्र। पुरान धनाढय। कोनो वस्तुक कमी छैन्ह, जे माँग लेताह ? तखन हमरे करम फूटल छल जे भगवान ओतेक सामर्थ नहि देलन्हि जे हुनकर देल सूचीक सभ सामान..... ।
एहि सं आगू नहि बाजि सकलाह सरयू बाबू। मुड़ी गोतने आगू बढि गेलाह, ’ शायद आदर्श ’शब्दक सही अर्थ ताकय।
- विपिन बादल
2 टिप्पणियां:
पहिल बार अहां कऽ पदि रहल छी ब्लाग पर बैरनीक लिखै छी अहां
very beautiful story.........
its an eye opener....
i wish him all the very best.....
keep writing badal ji
bhawna mishra
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